Sacchai Ka Uphar – Munsi Premchand ki Kahani (सच्चाई का उपहार – मुंसी प्रेमचंद की कहानी)

कोई दस मिनट के पीछे बाजबहादुर सचेत हुआ। कलेजे पर चोट लग गई थी। घाव ओछा पड़ा था, जिस पर भी खड़े होने की शक्ति न थी। साहस करके उठा और लँगड़ाता हुआ घर की ओर चला।
उधर यह विजयीदल भागते-भागते जयराम के मकान पर पहुँचा। रास्ते ही में सारा दल तितर-बितर हो गया। कोई इधर से निकल भागा, कोई उधर से, कठिन समस्या आ पड़ी थी। जयराम के घर तक केवल तीन सुदृढ़ लड़के पहुँचे। वहाँ पहुँचकर उनकी जान में जान आयी।

जयराम—कहीं मर न गया हो, मेरा घूँसा खूब बैठ गया था।

जगतसिंह तुम्हें पसली में नहीं मारना चाहिए था। अगर तिल्ली फट गई होगी तो न बचेगा !

जयराम— यार, मैंने जान के थोड़े ही मारा था। संयोग ही था। अब बताओ, क्या किया जाए ?

जगतसिंह— करना क्या है, चुपचाप बैठे रहो।

जयराम— कहीं मैं अकेला तो न फसूंगा ?

जगतसिंह— अकेले कौन फँसेगा, सबके सब साथ चलेंगे।

जयराम— अगर बाजबहादुर मरा नहीं है, तो उठकर सीधे मुंशीजी के पास जाएगा!

जगतसिंह— और मुंशीजी कल हम लोगों की खाल अवश्य उधेड़ेंगे।

जयराम— इसलिए मेरा सलाह है कि कल से मदरसे जाओ ही नहीं। नाम कटा के दूसरी जगह चले चलें, नहीं तो बीमारी का बहाना करके बैठे रहें। महीने-दो-महीने के बाद जब मामला ठंडा पड़ जाएगा, तो देखा जाएगा।

शिवराम— और जो परीक्षा होनेवाली है ?

जयराम— ओ हो ! इसका तो खयाल ही न था। एक ही महीना तो और रह गया है।

जगतसिंह तुम्हें अबकी जरूर वजीफा मिलता।

जयराम— हां, मैंने बहुत परिश्रम किया था। तो फिर ?

जगतसिंह— कुछ नहीं, तरक्की तो हो ही जाएगी। वजीफे से हाथ धोना पड़ेगा। जयराम— बाजबहादुर के हाथ लग जाएगा।

जगतसिंह— बहुत अच्छा होगा, बेचारे ने मार भी तो खायी है।

दूसरे दिन मदरसा लगा। जगतसिंह, जयराम और शिवराम तीनों गायब थे। वलीमुहम्मद पैर में पट्टी बाँध आये थे, लेकिन भय के मारे बुरा हाल था। कल के दर्शकगण भी थरथरा रहे थे कि कहीं हम लोग गेहूँ के साथ घुन की तरह न पिस जायँ। बाजबहादुर नियमानुसार अपने काम में लगा हुआ था। ऐसा मालूम होता था कि मानो उसे कल की बातें याद ही नहीं है। किसी से उनकी चर्चा न की। हां, आज वह अपने स्वभाव के प्रतिकूल कुछ प्रसन्नचित्त देख पड़ता था। विशेषतः कल के योद्धाओं से वह अधिक हिला-मिला हुआ था। वह चाहता था कि यह लोग मेरी ओर से निःशंक हो जायँ। रात-भर की विवेचना के पश्चात् उसने यही निश्चय किया था और आज जब संध्या समय वह घर चला, तो उसे अपनी उदारता का फल मिल चुका था। उसके शत्रु लज्जित थे और उसकी प्रशंसा करते थे।

मगर यह तीनों अपराधी दूसरे दिन भी न आये, तीसरे दिन भी उनका कोई पता न था। वह घर से मदरसे को चलते, लेकिन देहात की तरफ निकल जाते। वहाँ दिन-भर किसी वृक्ष के नीचे बैठे रहते, अथवा गुल्ली-डंडे खेलते। शाम को घर चले आते।

उन्होंने यह पता लगा लिया था कि समर के अन्य सभी योद्धागण मदरसे आते हैं और मुंशीजी उनसे कुछ नहीं बोलते, किन्तु चित्त से शंका दूर न होती थी। बाजबहादुर ने जरूर कहा होगा। हम लोगों के जाने की देर है। गये और बेभाव की पड़ी। यही सोचकर मदरसे आने का साहस न कर सकते थे।

चौथे दिन प्रातःकाल तीनों अपराधी बैठे सोच रहे थे कि आज किधर चलना चाहिए। इतने में बाजबहादुर आता हुआ दिखाई दिया। इन लोगों को आश्चर्य तो हुआ, परन्तु उसे अपने द्वार पर आते देखकर कुछ आशा बंध गई। यह लोग अभी बोलने भी न पाए थे कि बाजबहादुर ने कहा—क्यों मि. तुम लोग मदरसे क्यों नहीं आते ? तीनदिन से गैरहाजिरी हो रही है।

जगतसिंह— मदरसे क्या जायँ, जान भारी पड़ी है ? मुंशी जी एक हड्डी भी तो न छोड़ेंगे।

बाजबहादुर— क्यों, वलीमुहम्मद, दुर्गा, सभी तो जाते हैं। मुंशी जी ने किसी से भी कुछ कहा ?

जयराम— तुमने उन लोगों को छोड़ दिया होगा, लेकिन हमें भला तुम क्यों छोड़ने लगे ? तुमने एक-एक की तीन-तीन जड़ी होगी।

बाजबहादुर— आज मदरसे चलकर इसकी परीक्षा ही कर लो।

जगतसिंह— यह झाँसे रहने दीजिए। हमें पिटवाने की चाल है।

बाजबहादुर— तो मैं कहीं भागा तो नहीं जाता ? उस दिन सचाई की सजा दी थी, आज झूठ का इनाम देना।

जयराम— सच कहते हो, तुमने शिकायत नहीं की ?

बाजबहादुर— शिकायत की कौन बात थी। तुमने मुझे मारा, मैंने तुम्हें मारा। अगर तुम्हारा घूंसा न पड़ता, तो मैं तुम लोगों को रणक्षेत्र से भगाकर दम लेता। आपस के झगड़ों की शिकायत करना मेरी आदत नहीं है।

जगतसिंह— चलूँ तो यार, लेकिन विश्वास नहीं आता, तुम हमें झाँसे दे रहे हो, कचूमर निकलवा लोगे।

बाजबहादुर— तुम जानते हो, झूठ बोलने की मेरी बान नहीं है।

यह शब्द बाजबहादुर ने ऐसी विश्वासोत्पादक रीति से कहे कि उन लोगों का भ्रम दूर हो गया। बाजबहादुर के चले जाने के पश्चात् तीनों देर तक उसकी बातों की विवेचना करते रहे। अन्त में यही निश्चय हुआ कि आज चलना चाहिए।

ठीक दस बजे तीनों मित्र मदरसे पहुँच गये, किंतु चित्त में आशंकित थे। चेहरे का रंग उड़ा हुआ था।

मुंशीजी कमरे में आये। लड़कों ने खड़े होकर उनका स्वागत किया, उन्होंने तीनों की ओर तीव्र दृष्टि से देखकर केवल इतना कहा—तुम लोग तीन दिन से गैर हाजिर हो। देखो, दरजे में जो इम्तहानी सवाल हुए हैं, उन्हें नकल कर लो।
फिर पढ़ाने में मग्न हो गए।

जब पानी पीने के लिए लड़कों को आध घंटे का अवकाश मिला, तो तीनों मित्र और उनके सहयोगी जमा होकर बातें करने लगे।

जयराम— हम तो जान पर खेलकर मदरसे से आये थे, मगर बाजबहादुर है बात का धनी।

वलीमुहम्मद— मुझे तो ऐसा मालूम होता है, वह आदमी नहीं, देवता है। यह आँखों-देखी बात न होती, तो मुझे कभी इस पर विश्वास न आता।

जगतसिंह— भलमनसी इसी को कहते हैं। हमसे बड़ी भूल हुई कि उसके साथ ऐसा अन्याय किया।

दुर्गा— चलो, उससे क्षमा माँगें।

जयराम— हाँ, तुम्हें खूब सूझी। आज ही।

जब मदरसा बंद हुआ, तो दरजे के सब लड़के मिलकर बाजबहादुर के पास गये। जगतसिंह उनका नेता बनकर बोला—भाई साहब, हम सबके-सब तुम्हारे अपराधी हैं। तुम्हारे साथ हम लोगों ने जो अत्याचार किया है, उस पर हम हृदय से लज्जित हैं। हमारा अपराध क्षमा करो। तुम सज्जनता की मूर्ति हो ! हम लोग उजड्ड, गँवार और मूर्ख हैं, हमें अब क्षमा प्रदान करो।

बाजबहादुर की आँखों में आँसू आये, बोला—मैं पहले भी तुम लोगों को अपना भाई समझता था और अब भी वही समझता हूँ। भाइयों के झगड़े में क्षमा कैसी ?

सबके-सब उससे गले मिले। इसकी चर्चा सारे मदरसे में फैल गई। सारा मदरसा बाजहबहादुर की पूजा करने लगा। वह अपने मदरसे का मुखिया, नेता और सिरमौर बन गया।
पहले उसे सचाई का दंड मिला; अबकी सचाई का उपहार मिला।