प्राण का आयाम (नियंत्रण) ही प्राणायाम है। हमारे शरीर में जितनी भी चेष्टाएँ होती हैं, सभी का प्राण से प्रत्यक्ष या परोक्ष संबंध है। प्रतिक्षण जीवन और मृत्यु का जो अटूट संबंध मनुष्य के साथ है,वह भी प्राण के संयोग से ही है। संस्कृत-भाषा में ‘जीवन‘ शब्द‘ जीवन् प्राणधारणे‘ धातु से बना है और ‘ मृत्यु‘ शब्द ‘मृड़् प्राणत्यागे ‘ से । हमारे वेद, शास्त्र एवं उपनिषदों में प्राण की अनन्त महिमा गाई गई है।अथर्ववेद में कहा है – प्राणापानौ मृत्योर्मा पात स्वाहा। अर्थात्, प्राण और अपानये दोनों मेरी मृत्यु से रक्षा करें। मनु महाराज प्राणायाम के विषय में कहते हैं.
दह्यन्ते ध्यायमानानां धातूनां हि यथा मला:।
तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात्।।
(मनु: 6.71)
जैसे अग्नि आदि में तपाने से सुवर्ण आदि धातुओं के मल,विकार नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही प्राणायाम से इन्द्रियों एवं मन के दोष दूर होते हैं। ’ हठयोगप्रदीपिका ’ में कहा है
प्राणायामैरेव सर्वे प्रशुष्यन्ति मला इति।
आचार्याणान्तु केषाचिदन्यत् कर्म न सम्मतम्।।
(ह0 प्र0: 2.37)
गोरक्षशतक’ के अनुसार आसन से योगी को रजोगुण, प्राणायाम से पापनिवृत्ति औरप्रत्याहार से मानसिक विकार दूर करना चाहिए।
आसनेन रूजो हन्ति प्राणायामेन पातकम्।
विकारं मानसं योगी प्रत्याहारेण सर्वदा।।
प्राण एवं मन का घनिष्ठ संबंध है। प्राण के रूकने से मन स्वतः एकाग्र हो जाता है।
चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत्
(ह0 प्र0: 2.2)
प्राणायाम करने से मन पर पड़ा हुआ असत्, अविद्या एवं क्लेश-रूपी तमस् का आवरण क्षीण हो जता है। परिशुद्ध हुए मन में धारणा (एकाग्रता) स्वतः होने लगती है तथा धारणा से योग की उन्नत स्थितियों -ध्यान एवं समाधि की ओर आगे बढ़ा जाता है।
योगासनों से हम स्थूल शरीर की विकृतियों को दूर करते हैं। सूक्ष्म शरीर पर योगासनों की अपेक्षा प्राणायाम का विशेष प्रभाव होता है, प्राणायाम से सूक्ष्म शरीर ही नही, स्थूल शरीर पर भी विशेष प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से होता है। हमारे शरीर में फेफड़ों, हृदय एवं मस्तिष्क का एक विशेष महत्व है ओर इन तीनों का एक दूसरे के स्वास्थ्य से घनिष्ठ संबंध भी है।
स्थूल रूप से प्राणायाम श्वास-प्रश्वास के व्यायाम की एक पद्धति है, जिससे फेफड़े बलिष्ठ होते हैं रक्त-संचार की व्यवस्था सुधरने से समग्र आरोग्य एवं दीर्घ आयु का लाभ मिलता है। शरीर-विज्ञान के अनुसार मानव के दोनों फेफड़े श्वास को अपने भीतर भरने के लिए वे यंत्र हैं,जिनमें भरी हुई वायु समस्त शरीर में पहुंचकर ओषजन, अर्थात् आॅक्सीजन प्रदान करती है और विभिन्न अवयवों से उत्पन्न हुई मलीनता (कार्बोनिक गैस) को निकाल बाहर करती है। यह क्रिया ठीक तरह होती रहने से फेफड़े मजबूत होते हैं और रक्त-शोधन का कार्य चलता रहता है।
प्रायः अधिकतर व्यक्ति गहरा श्वास लेने के अभ्यस्त नहीं होते, जिससे फेफड़ों का लगभग एक चैथाई भाग कार्य करता है। शेष तीन-चैथाई भाग लगभग निष्क्रिय पड़ा रहता है। शहद की मक्खी के छत्ते की तरह फेफड़ों में प्रायः सात करोड़ तीस लाख ’स्पंज’ जैसे कोष्ठक होते हैं। साधारण हल्का श्वास लेनेपर उनमंे से लगभग दो करोड़ छिद्रों में ही प्राणवायु न पहुंचने से ये निष्क्रिय पड़े रहते हैं, जिससे क्षय (टी.बी), खांसी, बांकाइटिस आदि भयंकर रोगों से व्यक्ति आक्रान्त हो जाता है।
इस प्रकार, फेफड़ों की कार्यपद्धति का अधूरापन रक्त-शुद्धि पर प्रभाव डालता है। हृदय कमजोर होता है और परिणामतः अकालमृत्यू नित्य ही उपस्थित रहती है। इा स्थिति में प्राणायाम की महत्ता व्यक्ति की दीर्घ आयु के लिए अत्यधिक हो जाती है। विभिन्न रोगों का निवारण प्रणायाम के द्वारा प्राणवायु के विज्ञान की जानकारी से मानव स्वयं तथा दूसरों के स्वास्थ्य को सुव्यवस्थित करके सुखी एवं आनन्दपूर्ण जीवन का पूर्ण लाभ लेता हुआ अपनी आयु को बढ़ा सकता है। यही कारण है, कि सनातन धर्म, शुभ कार्य मेें तथा सन्ध्योपासना के नित्य-धर्म में ‘प्राणायाम‘ को एक आवश्यक धर्म-कृत्य के रूप में सम्मिलित करता है।
उद्वेग, चिन्ता,क्रोध, निराशा, भय कामुकता इत्यादि मनोविकारों का समाधान ‘प्राणायाम‘ द्वारा सरलतापूर्वक किया जा सकता है। इतना ही नहीं, मस्तिष्क की क्षमता के साथ स्मरण-शक्ति, कुशाग्रता, सूझ-बूझ, दूरदर्शिता, सूक्ष्म निरीक्षण-शक्ति, धारण, प्रज्ञा, मेधा इत्यादि मानसिक विेशेषताओं का अभिवर्धन करके ‘प्राणायाम‘ द्वारा दीर्घजीवी बनकर जीवन का वास्तविक आनन्द प्राप्त किया जा सकता है।
प्राणायाम करने से दीर्घ श्वसन का अभ्यास भी स्वतः होने लगता है। भगवान् की ओर से हमें जो जीवन मिला है, उसमें प्राण: श्वास गिनकर मिलतें हैं। जिसके जैसे कर्म होते हैं, उसी के अनुसार उसको अगला जन्म मिलता है।
सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः।
(योगदर्शन: 2.13)
पुण्य याअपुण्य कर्म के फलस्वरूप ही व्यक्ति को मनुष्य, पशु, प़क्षी, कीटादि योनियों में जन्म, आयु और भोग प्राप्त होता है। प्राणायाम करनेवाला अपने श्वासों का कम प्रयोग करता है‘; इसलिये वह दीर्घायु भी होता है। वैसे भी इस सृस्टि में जो प्राणी जितने कम श्वास लेते है; उतने ही दीर्घजीवी भी होते हैं। इसको हम अधोलिखित तालिका से सम्यक् प्रकार से जान सकते हैं:
S.no. | प्राणी | 1 मिनट में श्वास संख्या |
1 | कबूतर | 34 |
2 | चिड़ियां | 30 |
3 | बत्तख | 22 |
4 | बंदर | 22 |
5 | कुत्ता | 30 |
6 | सुअर | 27 |
7 | घोड़ा | 30 |
8 | बकरी | 24 |
9 | बिल्ली | 24 |
10 | सर्प | 19 |
11 | हाथी | 22 |
12 | मुनष्य | 15 |
13 | कछुआ | 5 |
इन प्राणियों में जो प्राणी जिस गति से श्वास लेता है, उसी के अनुसार उसकी आयु भी है, ऐसा हम प्रत्यक्ष देखते हैं। कछुए चार-चार सौ वर्ष तक की आयु के भी पाये जाते हैं। योगाभ्यासी पुरूष की प्रारंभ में श्वास-संख्या 7 तथा प्राणायाम एवं ध्यान के नियमित अभ्यास से 4 तक श्वास-संख्या हो जाती है। अतः योगी 400 योगी 400 वर्ष तक की दीर्घ आयु प्राप्त कर सकता है।