Devi – Munsi Premchand ki Kahani (देवी – मुंशी प्रेमचंद की कहानी)

ठाकुर ने जायदाद तो बचा ली थी, पर बड़े मंहगे दामो। उसके दिल का इत्मीनान गायब हो गया था। जिन्दगी में जैसे कुछ रह ही न गया हो। जायदाद आंखों के समाने थी, तुलिया दिल के अन्दर। तुलिया जब रोज समाने आकर अपनी तिर्छी चितवनों से उसके हृदय में बाण चलाती थी, तब वह ठोस सत्य थी। अब जो तुलिया उसके हृदय में बैठी हुई थी, वह स्वप्न थी जो सत्य से कहीं ज्यादा मादक है, विदरक है।

कभी-कभी तुलिया स्वप्न की एक झलक-सी नजर आ जाती, और स्वप्न ही की भांति विलीन भी हो जाती। गिरधर उससे अपने दिल का दर्द कहने का अवसर ढूंढ़ता रहता लेकिन तुलिया उसके साये से भी परहेज करती। गिरधर को अब अनुभव हो रहा था कि उसके जीवन को सूखी बनाने के लिए उसकी जायदाद जितनी जरूरी है, उससे कहीं ज्यादा जरूरी तुलिया है। उसे अब अपनी कृपणता पर क्रोध आता। जायदाद क्या तुलिया के नाम रही, क्या उसके नाम। इस जरा-सी बात में क्या रक्खा है। तुलिया तो इसलिए अपने नाम लिखा रही थी कि कहीं मैं उसके साथ बेवफाई कर जाऊं तो वह अनाथ न हो जाय। जब मैं उसका बिना कौड़ी का गुलाम हूं तो बेवफाई कैसी? मैं उसके साथ बेवफाई करूंगा, जिसकी एक निगाह के लिए, एक शब्द के लिए तरसता रहता हूं।

कहीं उससे एक बार एकान्त में भेंट हो जाती तो उससे कह देता—तूला, मेरे पास जो कुछ है, वह सब तुम्हारा है। कहो बखशिशनामा लिख हूं, कहो बयनामा लिख दूं। मुझसे जो अपराध हुआ उसके लिए नादिम हूं। जायदाद से मनुष्य को जो एक संस्कार-गत प्रेम है, उसी ने मेरे मुंह से वह शब्द निकलवाये। यही रिवाजी लोभ मेरे और तुम्हारे बीच में आकर खड़ा हो गया। पर अब मैंने जाना कि दुनिया में वही चीज सबसे कीमती है जिससे जीवन में आनन्द और अनुराग पैदा हो। अगर दरिद्रता और वैराग्य में आनन्द मिले तो वही सबसे प्रिय वस्तु है, जिस पर आदमी जमीन और मिल्कियत सब कुछ होम कर देगा। आज भी लाखों माई के लाल हैं, जो संसार के सुखों पर लात मारकर जंगलों और पहाड़ों की सैर करने में मस्त हैं। और उस वक्त मैं इतनी मोटी-सी बात न समझा। हाय रे दुर्भाग्य!

एक दिन ठाकुर के पास तुलिया ने पैगाम भेजा—मैं बीमार हूं, आकर देख जाव, कौन जाने बचूं कि न बचूं।

इधर कई दिन से ठाकुर ने तुलिया को न देखा था। कई बार उसके द्वार के चक्कर भी लगाए, पर वह न दीख पड़ी। अब जो यह संदेशा मिला तो वह जैसे पहाड़ से नीचे गिर पड़ा। रात के दस बजे होंगे। पूरी बात भी न सुनी और दौड़ा। छाती धड़क रही थी और सिर उड़ा जाता था, तुलिया बीमार है! क्या होगा भगवान्! तुम मुझे क्यों नहीं बीमार कर देते? मैं तो उसके बदले मरने को भी तैयार हूं। दोनों ओर के काले-काले वृक्ष मौत के दूतों की तरह दौड़े चले आते थे। रह-रहकर उसके प्राणों से एक ध्वनि निकलती थी, हसरत और दर्द में डूबी हुई—तुलिया बीमार है!

उसकी तुलिया ने उसे बुलाया है। उस कृतघ्नी, अधम, नीच, हत्यारे को बुलाया है कि आकर मुझे देख जाओ, कौन जाने बचूं कि न बचूं। तू अगर न बचेगी तुलिया तो मैं भी न बचूंगा, हाय, न बचूंगा!! दीवार से सिर फोड़कर मर जाऊंगा। फिर मेरी और तेरी चिता एक साथ बनेगी, दोनों के जनाजे एक साथ निकलेंगे।

उसने कदम और तेज किए। आज वह अपना सब कुछ तुलिया के कदमों पर रख देगा। तुलिया उसे बेवफा समझती है। आज वह दिखाएगा, वफा किसे कहते हैं। जीवन में अगर उसने वफा न की तो मरने के बाद करेगा। इस चार दिन की जिन्दगी में जो कुछ न कर सका वह अनन्त युगों तक करता रहेगा। उसका प्रेम कहानी बनकर घर-घर फैल जाएगा।

मन में शंका हुई, तुम अपने प्राणों का मोह छोड़ सकोगे? उसने जोर से छाती पीटी ओर चिल्ला उठा—प्राणों का मोह किसके लिए? और प्राण भी तो वही है, जो बीमार है। देखूं मौत कैसे प्राण ले जाती है, और देह को छोड़ देती है।

उसने धड़कते हुए दिल और थरथराते हुए पांवों से तुलिया के घर में कदम रक्खा। तुलिया अपनी खाट पर एक चादर ओढ़े सिमटी पड़ी थी, और लालटेन के अन्धे प्रकाश में उसका पीला मुख मानो मौत की गोद में विश्राम कर रहा था।

उसने उसके चरणों पर सिर रख दिया और आंसुओं में डूबी हुई आवाज से बोला—तूला, यह अभाग तुम्हारे चरणों पर पड़ा हुआ है। क्या आंखें न खोलेगी?

तुलिया ने आंखें खोल दीं और उसकी ओर करुण दृष्टि डालकर कराहती हुई बोली—तुम हो गिरधर सिंह, तुम आ गए? अब मैं आराम से मरूंगी। तुम्हें एक बार देखने के लिए जी बहुत बेचैन था। मेरा कहा-सुना माफ कर देना और मेरे लिए रोना मत। इस मिट्टी की देह में क्या रक्खा है गिरधर! वह तो मिट्टी में मिल जाएगी। लेकिन मैं कभी तुम्हारा साथ न छोडूंगी। परछाईं की तरह नित्य तुम्हारे साथ रहूंगी। तुम मुझे देख न सकोगे, मेरी बातें सुन न सकोगे, लेकिन तुलिया आठों पहर सोते-जागते तुम्हारे साथ रहेगी। मेरे लिए अपने को बदनाम मत करना गिरधर! कभी किसी के सामने मेरा नाम जबान पर न लाना। हां, एक बार मेरी चिता पर पानी के छींटे मार देना। इससे मेरे हृदय की ज्वाला शान्त हो जायगी।

गिरघर फूट-फूटकर रो रहा था। हाथ में कटार होती तो इस वक्त जिगर में मार लेता और उसके सामने तड़पकर मर जाता।

जरा दम लेकर तुलिया ने फिर कहा—मैं बचूंगी नहीं गिरधर, तुमसे एक बिनती करती हूं, मानोगी?

गिरधर ने छाती ठोककर कहा—मेरी लाश भी तेरे साथ ही निकलेगी तुलिया। अब जीकर क्या करूंगा और जिऊं भी तो कैसे? तू मेरा प्राण हे तुलिया।

उसे ऐसा मालूम हुआ तुलिया मुस्कराई।

‘नहीं-नहीं, ऐसी नादानी मत करना। तुम्हारे बाल-बच्चे हैं, उनका पालन करना। अगर तुम्हें मुझसे सच्चा प्रेम है, तो ऐसा कोई काम मत करना जिससे किसी को इस प्रेम की गन्ध भी मिले। अपनी तुलिया को मरने के पीछे बदनाम मत करना।

गिरधर ने रोकर कहा—जैसी तेरी इच्छा।

‘मेरी तुमसे एक बिनती है।’

‘अब तो जिऊंगी ही इसीलिए कि तेरा हुक्म पूरा करूं, यही मेरे जीवन का ध्येय होगा।’

‘मेरी यही विनती है कि अपनी भाभी को उसी मान-मार्यादा के साथ रखना जैसे वह बंसीसिंह के सामने रहती थी। उसका आधा उसको दे देना।

‘लेकिन भाभी तो तीन महीने से अपने मैके में है, और कह गई है कि अब कभी न आऊंगी।’

‘यह तुमने बुरा किया है गिरधर, बहुत बुरा किया है। अब मेरी समझ में आया कि क्यों मुझे बुर-बुरे सपने आ रहे थे। अगर चाहते हो कि मैं अच्छी हो जाऊं, तो जितनी जल्दी हो सके, लिखा-पढ़ी करके कागज-पत्तर मेरे पास रख दो। तुम्हारी यह बददियानती ही मेरी जान का गाहक हो रही है। अब मुझे मालूम हुआ कि बंसीसिंह क्यों मुझे बार-बार सपना देते थे। मुझे और कोई रोग नहीं है। बंसीसिंह ही मुझे सता रहे हैं। बस, अभी जाओ। देर की तो मुझे जीता न पाओगे। तुम्हारी बेइन्साफी का दंड बंसीसिंह मुझे दे रहे हैं।’

गिरधर ने दबी जबान से कहा—लेकिन रात को कैसे लिखा-पढ़ी होगी तूली। स्टाम्प कहां मिलेगा? लिखेगा कौन? गवाह कहां हैं?

‘कल सांझ तक भी तुमने लिखा-पढ़ी कर ली तो मेरी जान बच जाएगी, गिरधर। मुझे बंसीसिंह लगे हुए हैं, वही मुझे सता रहे हैं, इसीलिए कि वह जानते हैं तुम्हें मुझसे प्रेम है। मैं तुम्हारे ही प्रेम के कारन मारी जा रही हूं। अगर तुमने देर की तो तुलिया को जीता न पाओगे।’

‘मैं अभी जाता हूं तुलिया। तेरा हुक्म सिर और आंखों पर। अगर तूने पहले ही यह बात मुझसे कह दी होती तो क्यों यह हालत होती? लेकिन कहीं ऐसा न हो, मैं तुझे देख न सकूं और मन की लालसा मन में ही रह जाय।’

‘नहीं-नहीं, मैं कल सांझ तक नहीं मरूंगी, विश्वास रक्खो।’

गिरधर उसी छन वहां से निकला और रातों-रात पच्चीस कोस की मंजिल काट दी। दिन निकलते-निकलते सदर पहुंचा, वकीलों से सलाह-मशविरा किया, स्टाम्प लिया, भावज के नाम आधी जायदाद लिखी, रजिस्ट्री कराई, और चिराग जलते-जलते हैरान-परीशान, थका-मांदा, बेदाना-पानी, आशा और दुराशा से कांपता हुआ आकर तुलिया के सामने खड़ा हो गया। रात के दस बज गए थे। उस ववत न रेलें थीं, न लारियां, बेचारे को पचास कोस की कठिन यात्रा करनी पड़ी। ऐसा थक गया था कि एक-एक पग पहाड़ मालूम होता था। पर भय था कि कहीं देर तो अनर्थ हो जाएगा।

तुलिया ने प्रसन्न मन से पूछा—तुम आ गए गिरधर? काम कर आए?

गिरधर ने कागज उसके सामने रख दिया और बोला—हां तूला, कर आया, मगर अब भी तुम अच्छी न हुई तो तुम्हारे साथ मेरी जान भी जायगी। दुनिया चाहे हंसे, चाहे रोये, मुझे परवाह नहीं है। कसम ले लो, जो एक घूंट पानी भी पिया हो।

तुलिया उठ बैठी और कागज को अपने सिरहाने रखकर बोली—अब मैं बहुत अच्छी हूं। सबेरे तक बिलकुल अच्छी हो जाऊंगीं तुमने मेरे साथ जो नेकी की है, वह मरते दम तक न भूलूंगी। लेकिन अभी-अभी मुझे जरा नींद आ गई थी। मैंने सपना देखा कि बंसीसिंह मेरे सिरहाने खड़े हैं और मुझसे कह रहे हैं, तुलिया, तू ब्याहता है, तेरा आदमी हजार कोस पर बैठा तेरे नाम की माला जप रहा है। चाहता तो दूसरी कर लेता, लेकिन तेरे नाम पर बैठा हुआ है और जन्म-भर बैठा रहेगा। अगर तूने उससे दगा की तो मैं तेरा दुश्मन हो जाऊंगा, और फिर जान लेकर ही छोडूंगा। अपना भला चाहती है तो अपने सत् पर रह। तूने उससे कपट किया, उसी दिन मैं तेरी सांसत कर डालूंगा। बस, यह कहकर वह लाल-लाल आंखों से मुझे तरेरते हुए चले गए।

गिरधर ने एक छन तुलिया के चेहरे की तरफ देखा, जिस पर इस समय एक दैवी तेज विराज रहा था, एकाएक जैसे उसकी आंखों के सामने से पर्दा हट गया और सारी साजिश समझ में आ गई। उसने सच्ची श्रद्धा से तुलिया के चरणों को चूमा और बोला—समझ गया तुलिया, तू देवी है।

-‘चांद’, अप्रैल १९३५