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Famous Hindi Poems सूचना वेबसाइट पर हिंदी में Gulzar Poems In Hindi के बारे में पढ़ने के लिए हमारी वेबसाइट पर आपका बहुत स्वागत है। नमस्कार दोस्तों, मेरा नाम Altaf Hassan और आज की पोस्ट में, आप Gulzar Poetry / गुलज़ार कविता हिंदी में पढ़ेंगे।
गुलज़ार एक भारतीय गीतकार, कवि, लेखक, पटकथा लेखक और फिल्म निर्देशक हैं। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत संगीत निर्देशक एस.डी. बर्मन 1963 की फ़िल्म बंदिनी में गीतकार के रूप में किया और उन्होंने कई और संगीत निर्देशक जैसे डी। बर्मन, सलिल चौधरी, विशाल भारद्वाज और ए आर रहमान सहित कई संगीत निर्देशकों के साथ काम किया।
Gulzar Ji के जीवन से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातें।
Sampooran Singh Kalra (Born On 18 August 1934), जिन्हें पेशेवर रूप से गुलज़ार / Gulzar के नाम से जाना जाता है। उनका जन्म खत्री सिंह फैमिली वॉल्यूम Jhelum District, British India ( Pakistan ) में हुआ था। वह एक भारतीय गीतकार, कवि, लेखक, पटकथा लेखक और फिल्म निर्देशक हैं।
गुलज़ार कविता, संवाद और स्क्रिप्ट भी लिखते हैं। उन्होंने 1970 के दशक के दौरान औंधी और मौसम और 1980 के दशक में टीवी श्रृंखला मिर्जा गालिब जैसी फिल्मों का निर्देशन किया। उन्होंने 1993 में कीदार का निर्देशन भी किया था। उन्हें 2004 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया, जो भारत में तीसरा सबसे बड़ा नागरिक पुरस्कार है।
उन्होंने साहित्य अकादमी पुरस्कार और दादा साहेब फाल्के पुरस्कार भी जीता – भारतीय सिनेमा का सर्वोच्च पुरस्कार। उन्होंने कई भारतीय राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार, 21 फिल्मफेयर पुरस्कार, एक अकादमी पुरस्कार और एक ग्रेमी पुरस्कार जीते हैं।
आज की पोस्ट भारतीय सिनेमा के महान गुलज़ार जी कविताएं / Gulzar Poetry पर आधारित है। वह हमारे घावों को भरने और हमारी आत्मा को अपने हर शब्द से शांत करने की प्रतिभा रखते है।
Best Gulzar Ji Poetry | ” गुलज़ार कविता “
1. ” हम को मन की शक्ति देना ” – Gulzar Poetry
हम को मन की शक्ति देना, मन विजय करें
दूसरो की जय से पहले, खुद को जय करें।
भेद भाव अपने दिल से साफ कर सकें
दोस्तों से भूल हो तो माफ़ कर सके
झूठ से बचे रहें, सच का दम भरें
दूसरो की जय से पहले खुद को जय करें
हमको मन की शक्ति देना।
मुश्किलें पड़े तो हम पे, इतना कर्म कर
साथ दें तो धर्म का चलें तो धर्म पर
खुद पर हौसला रहें बदी से न डरें
दूसरों की जय से पहले खुद को जय करें
हमको मन की शक्ति देना, मन विजय करें।
2. ” इक इमारत “ – Gulzar Poems
इक इमारत
है सराय शायद,
जो मेरे सर में बसी है।
सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते हुए जूतों की धमक,
बजती है सर में
कोनों-खुदरों में खड़े लोगों की सरगोशियाँ,
सुनता हूँ कभी
साज़िशें, पहने हुए काले लबादे सर तक,
उड़ती हैं, भूतिया महलों में उड़ा करती हैं
चमगादड़ें जैसे
इक महल है शायद !
साज़ के तार चटख़ते हैं नसों में
कोई खोल के आँखें,
पत्तियाँ पलकों की झपकाके बुलाता है किसी को !
चूल्हे जलते हैं तो महकी हुई ‘गन्दुम’ के धुएँ में,
खिड़कियाँ खोल के कुछ चेहरे मुझे देखते हैं !
और सुनते हैं जो मैं सोचता हूँ !
एक, मिट्टी का घर है
इक गली है, जो फ़क़त घूमती ही रहती है
शहर है कोई, मेरे सर में बसा है शायद !
3. ” किताबें झाँकती हैं बंद आलमारी के शीशों से “
किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होती
जो शामें इनकी सोहबतों में कटा करती थीं,
अब अक्सर
गुज़र जाती हैं ‘कम्प्यूटर’ के पर्दों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें,
इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई हैं,
बड़ी हसरत से तकती हैं,
जो क़दरें वो सुनाती थीं।
कि जिनके ‘सैल’कभी मरते नहीं थे
वो क़दरें अब नज़र आती नहीं घर में
जो रिश्ते वो सुनती थीं
वह सारे उधरे-उधरे हैं
कोई सफ़्हा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ्ज़ों के माने गिर पड़ते हैं
बिना पत्तों के सूखे टुंडे लगते हैं वो सब अल्फाज़
जिन पर अब कोई माने नहीं उगते
बहुत सी इसतलाहें हैं
जो मिट्टी के सिकूरों की तरह बिखरी पड़ी हैं
गिलासों ने उन्हें मतरूक कर डाला
ज़ुबान पर ज़ायका आता था जो सफ़हे पलटने का
अब ऊँगली ‘क्लिक’करने से अब
झपकी गुज़रती है
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था,कट गया है
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रिहल की सुरत बना कर
नीम सज़दे में पढ़ा करते थे,छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्के
किताबें मांगने,गिरने,उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा ?
वो शायद अब नहीं होंगे !
4. ” बस एक चुप सी लगी है “ – Gulzar Poetry
बस एक चुप सी लगी है, नहीं उदास नहीं !
कहीं पे सांस रुकी है !
नहीं उदास नहीं, बस एक चुप सी लगी है !!
कोई अनोखी नहीं, ऐसी ज़िन्दगी लेकिन !
खूब न हो, मिली जो खूब मिली है !
नहीं उदास नहीं, बस एक चुप सी लगी है !!
सहर भी ये रात भी, दोपहर भी मिली लेकिन !
हमीने शाम चुनी, हमीने शाम चुनी है !
नहीं उदास नहीं, बस एक चुप सी लगी है !!
वो दासतां जो, हमने कही भी, हमने लिखी !
आज वो खुद से सुनी है !
नहीं उदास नहीं, बस एक चुप सी लगी है !!
5. ” मुझको इतने से काम पे रख लो “ – गुलज़ार कविता
मुझको इतने से काम पे रख लो..
जब भी सीने पे झूलता लॉकेट
उल्टा हो जाए तो मैं हाथों से
सीधा करता रहूँ उसको
मुझको इतने से काम पे रख लो..
जब भी आवेज़ा उलझे बालों में
मुस्कुराके बस इतना सा कह दो
आह चुभता है ये अलग कर दो
मुझको इतने से काम पे रख लो..
जब ग़रारे में पाँव फँस जाए
या दुपट्टा किवाड़ में अटके
एक नज़र देख लो तो काफ़ी है
मुझको इतने से काम पे रख लो..
6. ” कितनी सदियों से ढूँढ़ती होंगी “ – Gulzar Poems
कितनी सदियों से ढूँढ़ती होंगी
तुमको ये चाँदनी की आवज़ें,
पूर्णमासी की रात जंगल में
नीले शीशम के पेड़ के नीचे,
बैठकर तुम कभी सुनो जानम
भीगी-भीगी उदास आवाज़ें,
नाम लेकर पुकारती है तुम्हें
पूर्णमासी की रात जंगल में।
पूर्णमासी की रात जंगल में
चाँद जब झील में उतरता है,
गुनगुनाती हुई हवा जानम
पत्ते-पत्ते के कान में जाकर
नाम ले ले के पूछती है तुम्हें,
पूर्णमासी की रात जंगल में
तुमको ये चाँदनी आवाज़ें
कितनी सदियों से ढूँढ़ती होंगी।
7. ” मेरा कुछ सामान “ – गुलज़ार कविता
(1)
जब भी यह दिल उदास होता है
जाने कौन आस-पास होता है,
होंठ चुपचाप बोलते हों जब
सांस कुछ तेज़-तेज़ चलती हो,
आंखें जब दे रही हों आवाज़ें
ठंडी आहों में सांस जलती हो
आँख में तैरती हैं तसवीरें
तेरा चेहरा तेरा ख़याल लिए
आईना देखता है जब मुझको
एक मासूम सा सवाल लिए
कोई वादा नहीं किया लेकिन
क्यों तेरा इंतजार रहता है,
बेवजह जब क़रार मिल जाए
दिल बड़ा बेकरार रहता है,
जब भी यह दिल उदास होता है,
जाने कौन आस-पास होता है।
(2)
हाल-चाल ठीक-ठाक है
सब कुछ ठीक-ठाक है
बी.ए. किया है, एम.ए. किया
लगता है वह भी ऐंवे किया
काम नहीं है वरना यहाँ
आपकी दुआ से सब ठीक-ठाक है
आबो-हवा देश की बहुत साफ़ है
क़ायदा है, क़ानून है, इंसाफ़ है
अल्लाह-मियाँ जाने कोई जिए या मरे
आदमी को खून-वून सब माफ़ है
और क्या कहूं?
छोटी-मोटी चोरी, रिश्वतखोरी
देती है अपा गुजारा यहाँ
आपकी दुआ से बाक़ी ठीक-ठाक है
गोल-मोल रोटी का पहिया चला
पीछे-पीछे चाँदी का रुपैया चला
रोटी को बेचारी को चील ले गई
चाँदी ले के मुँह काला कौवा चला
और क्या कहूं?
मौत का तमाशा, चला है बेतहाशा
जीने की फुरसत नहीं है यहाँ
आपकी दुआ से बाक़ी ठीक-ठाक है
हाल-चाल ठीक-ठाक है
(3)
अ-आ, इ-ई, अ-आ, इ-ई
मास्टर जी की आ गई चिट्ठी
चिट्ठी में से निकली बिल्ली
बिल्ली खाए जर्दा-पान
काला चश्मा पीले कान
कान में झुमका, नाक में बत्ती
हाथ में जलती अगरबत्ती
अगर हो बत्ती कछुआ छाप
आग में बैठा पानी ताप
ताप चढ़े तो कम्बल तान
वी.आई.पी. अंडरवियर-बनियान
अ-आ, इ-ई, अ-आ, इ-ई
मास्टर जी की आ गई चिट्ठी
चिट्ठी में से निकला मच्छर
मच्छर की दो लंबी मूँछें
मूँछ पे बाँधे दो-दो पत्थर
पत्थर पे इक आम का झाड़
पूंछ पे लेके चले पहाड़
पहाड़ पे बैठा बूढ़ा जोगी
जोगी की इक जोगन होगी
गठरी में लागा चोर
मुसाफिर देख चाँद की ओर
पहाड़ पै बैठा बूढ़ा जोगी
जोगी की एक जोगन होगी
जोगन कूटे कच्चा धान
वी.आई.पी. अंडरवियर बनियान
अ-आ, इ-ई, अ-आ, इ-ई
मास्टर जी की आ गई चिट्ठी
चिट्ठी में से निकला चीता
थोड़ा काला थोड़ा पीला
चीता निकला है शर्मीला
घूँघट डालके चलता है
मांग में सेंदुर भरता है
माथे रोज लगाए बिंदी
इंगलिश बोले मतलब हिंदी
‘इफ’ अगर ‘इज’ है, ‘बट’ पर
‘व्हॉट’ माने क्या
इंगलिश में अलजेब्रा छान
वी.आई.पी. अंडरवियर-बनियान
8. ” खाली कागज़ पे क्या तलाश करते हो ? “
खाली कागज़ पे क्या तलाश करते हो?
एक ख़ामोश-सा जवाब तो है।
डाक से आया है तो कुछ कहा होगा
कोई वादा नहीं.. लेकिन
देखें कल वक्त क्या तहरीर करता है !
या कहा हो कि.. खाली हो चुकी हूँ मैं
अब तुम्हें देने को बचा क्या है?
सामने रख के देखते हो जब
सर पे लहराता शाख का साया
हाथ हिलाता है जाने क्यों ?
कह रहा हो शायद वो..
धूप से उठके दूर छाँव में बैठो!
सामने रौशनी के रख के देखो तो
सूखे पानी की कुछ लकीरें बहती हैं
इक ज़मीं दोज़ दरया, याद हो शायद
शहरे मोहनजोदरो से गुज़रता था !
उसने भी वक्त के हवाले से
उसमें कोई इशारा रखा हो.. या
उसने शायद तुम्हारा खत पाकर
सिर्फ इतना कहा कि, लाजवाब हूँ मैं !
9. ” ईंधन “ – Gulzar Poetry
छोटे थे, माँ उपले थापा करती थी
हम उपलों पर शक्लें गूँधा करते थे
आँख लगाकर – कान बनाकर
नाक सजाकर
पगड़ी वाला, टोपी वाला
मेरा उपला
तेरा उपला
अपने-अपने जाने-पहचाने नामों से
उपले थापा करते थे
हँसता-खेलता सूरज रोज़ सवेरे आकर
गोबर के उपलों पे खेला करता था
रात को आँगन में जब चूल्हा जलता था
हम सारे चूल्हा घेर के बैठे रहते थे
किस उपले की बारी आयी
किसका उपला राख हुआ
वो पंडित था
इक मुन्ना था
इक दशरथ था
बरसों बाद – मैं
श्मशान में बैठा सोच रहा हूँ
आज की रात इस वक्त के जलते चूल्हे में
इक दोस्त का उपला और गया !
10. ” बस एक लम्हे का झगड़ा था “ – Gulzar
बस एक लम्हे का झगड़ा था
दर-ओ-दीवार पे ऐसे छनाके से गिरी आवाज़
जैसे काँच गिरता है,
हर एक शय में गई
उड़ती हुई, चलती हुई, किरचें
नज़र में, बात में, लहजे में,
सोच और साँस के अन्दर
लहू होना था इक रिश्ते का
सो वो हो गया उस दिन,
उसी आवाज़ के टुकड़े उठा के फर्श से उस शब
किसी ने काट ली नब्जें
न की आवाज़ तक कुछ भी
कि कोई जाग न जाए,
बस एक लम्हे का झगड़ा था।
Gulzar Poetry In Hindi अंतिम शब्द।
तो, आज के लिए बस इतना ही। उपरोक्त सभी (Gulzar Poetry) / गुलज़ार कविताहिंदी में पढ़ने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हमें खेद है कि इस पोस्ट में हमने गुलज़ार की सभी कविता को नहीं लिखी।
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