सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
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सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविताएँ हमारे दिलों में और हिंदी साहित्य के क्षेत्र में एक विशेष स्थान रखती हैं। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला हिंदी साहित्य के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। छाया काल के चार मुख्य हस्ताक्षर जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला हैं। हालाँकि उन्होंने कई किताबें और कविताएँ लिखी हैं, लेकिन आज हम उनकी प्रसिद्ध कविताएँ देखेंगे।
Suryakant Tripathi Nirala के जीवन से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातें।
Suryakant Tripathi (21 February 1896 – 15 October 1961) 21 फरवरी 1896 को बंगाल के मिदनापुर में पैदा हुए। वे अपने कलम नाम ” निराला “ से भी जाने जाते थे, एक भारतीय कवि, उपन्यासकार, निबंधकार और कहानीकार थे। उन्होंने कई स्केच भी बनाए। उनके पिता, पंडित रामसहाय त्रिपाठी, एक सरकारी कर्मचारी थे और एक अत्याचारी व्यक्ति थे। जब वे बहुत छोटे थे तब उनकी मां की मृत्यु हो गई थी।
निराला ने 1920 के आसपास लिखना शुरू किया। उनकी पहली रचना ‘जन्मभूमि’ पर लिखा गया एक गीत था। “जूही की कली”, जिसे निराला की पहली रचना के रूप में जाना जाता है। निराला द्वारा 1916 में लिखी गई यह शीर्षक कविता वास्तव में 1921 के आसपास लिखी गई थी और 1922 में पहली बार प्रकाशित हुई थी।
निरालाजी की कविताओं में कल्पना बहुत कम थी। उनकी कविताओं में वास्तविकता की प्रमुखता दिखाई देती है। निराला जी ने अपनी एक कविता संग्रह परिमल में लिखी है। कविताएँ भी उसी तरह से आजाद होती हैं जिस तरह इंसान आजाद होता है।
निरालाजी शुरू से ही रामचरितमानस के शौकीन थे। रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, और रवींद्रनाथ टैगोर का उनके जीवन पर बहुत प्रभाव था। तोह चलिए और देखते है Suryakant Tripathi Nirala Poems In Hindi.
Best Suryakant Tripathi Nirala Poems In Hindi | सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविताएं
1. ” प्रेम के प्रति ” – Suryakant Tripathi Nirala Poems In Hindi
चिर-समाधि में अचिर-प्रकृति जब,
तुम अनादि तब केवल तम
अपने ही सुख-इंगित से फिर
हुए तरंगित सृष्टि विषम।
तत्वों में त्वक बदल बदल कर
वारि, वाष्प ज्यों, फिर बादल
विद्युत की माया उर में, तुम
उतरे जग में मिथ्या-फल।
वसन वासनाओं के रँग-रँग,
पहन सृष्टि ने ललचाया
बाँध बाहुओं में रूपों ने
समझा-अब पाया-पाया।
किन्तु हाय, वह हुई लीन जब
क्षीण बुद्धि-भ्रम में काया
समझे दोनों, था न कभी वह
प्रेम, प्रेम की थी छाया।
प्रेम, सदा ही तुम असूत्र हो,
उर-उर के हीरों के हार
गूँथे हुए प्राणियों को भी
गुँथे न कभी, सदा ही सार।
2. ” दीन ” – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला पोयम्स
सह जाते हो
उत्पीड़न की क्रीड़ा सदा निरंकुश नग्न,
हृदय तुम्हारा दुबला होता नग्न,
अन्तिम आशा के कानों में
स्पन्दित हम – सबके प्राणों में
अपने उर की तप्त व्यथाएँ,
क्षीण कण्ठ की करुण कथाएँ
कह जाते हो
और जगत की ओर ताककर
दुःख हृदय का क्षोभ त्यागकर,
सह जाते हो।
कह जातेहो-
यहाँ कभी मत आना,
उत्पीड़न का राज्य दुःख ही दुःख
यहाँ है सदा उठाना,
क्रूर यहाँ पर कहलाता है शूर,
और हृदय का शूर सदा ही दुर्बल क्रूर,
स्वार्थ सदा ही रहता परार्थ से दूर,
यहाँ परार्थ वही, जो रहे
स्वार्थ से हो भरपूर,
जगतकी निद्रा, है जागरण,
और जागरण जगत का – इस संसृति का
अन्त – विराम – मरण
अविराम घात – आघात
आह ! उत्पात!
यही जग – जीवन के दिन-रात।
यही मेरा, इनका, उनका, सबका स्पन्दन,
हास्य से मिला हुआ क्रन्दन।
यही मेरा, इनका, उनका, सबका जीवन,
दिवस का किरणोज्ज्वल उत्थान,
रात्रि की सुप्ति, पतन;
दिवस की कर्म – कुटिल तम – भ्रान्ति
रात्रि का मोह, स्वप्न भी भ्रान्ति,
सदा अशान्ति!
3. ” प्रगल्भ प्रेम ” – Suryakant Tripathi Nirala Poems
आज नहीं है मुझे और कुछ चाह,
अर्धविकव इस हॄदय-कमल में आ तू
प्रिये, छोड़ कर बन्धनमय छ्न्दों की छोटी राह!
गजगामिनि, वह पथ तेरा संकीर्ण,
कण्टकाकीर्ण,
कैसे होगी उससे पार?
काँटों में अंचल के तेरे तार निकल जायेंगे
और उलझ जायेगा तेरा हार
मैंने अभी अभी पहनाया
किन्तु नज़र भर देख न पाया-कैसा सुन्दर आया।
मेरे जीवन की तू प्रिये, साधना,
प्रस्तरमय जग में निर्झर बन
उतरी रसाराधना!
मेरे कुंज-कुटीर-द्वार पर आ तू
धीरे धीरे कोमल चरण बढ़ा कर,
ज्योत्स्नाकुल सुमनों की सुरा पिला तू
प्याला शुभ्र करों का रख अधरो पर!
बहे हृदय में मेरे, प्रिय, नूतन आनन्द प्रवाह,
सकल चेतना मेरी होये लुप्त
और जग जाये पहली चाह!
लखूँ तुझे ही चकित चतुर्दिक,
अपनापन मैं भूलूँ,
पड़ा पालने पर मैं सुख से लता-अंक के झूलूँ,
केवल अन्तस्तल में मेरे, सुख की स्मृति की अनुपम
धारा एक बहेगी,
मुझे देखती तू कितनी अस्फुट बातें मन-ही-मन
सोचेगी, न कहेगी!
एक लहर आ मेरे उर में मधुर कराघातों से
देगी खोल हृदय का तेरा चिरपरिचित वह द्वार,
कोमल चरण बढ़ा अपने सिंहासन पर बैठेगी,
फिर अपनी उर की वीणा के उतरे ढीले तार
कोमल-कली उँगुलियों से कर सज्जित,
प्रिये, बजायेगी, होंगी सुरललनाएँ भी लज्जित!
इमन-रागिनी की वह मधुर तरंग
मीठी थपकी मार करेगी मेरी निद्रा भंग,
जागूँगा जब, सम में समा जायगी तेरी तान,
व्याकुल होंगे प्राण,
सुप्त स्वरों के छाये सन्नाटे में
गूँजेगा यह भाव,
मौन छोड़ता हुआ हृदय पर विरह-व्यथित प्रभाव
क्या जाने वह कैसी थी आनन्द-सुरा
अधरों तक आकर
बिना मिटाये प्यास गई जो सूख जलाकर अन्तर!
4. ” मित्र के प्रति ” – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
(1)
कहते हो, ‘‘नीरस यह
बन्द करो गान
कहाँ छन्द, कहाँ भाव,
कहाँ यहाँ प्राण ?
था सर प्राचीन सरस,
सारस-हँसों से हँस,
वारिज-वारिज में बस
रहा विवश प्यार,
जल-तरंग ध्वनि; कलकल
बजा तट-मृदंग सदल,
पैंगें भर पवन कुशल
गाती मल्लार।”
(2)
सत्य, बन्धु सत्य; वहाँ
नहीं अर्र-बर्र,
नहीं वहाँ भेक, वहाँ
नहीं टर्र-टर्र।
एक यहीं आठ पहर
बही पवन हहर-हहर,
तपा तपन, ठहर-ठहर
सजल कण उड़े,
गये सूख भरे ताल,
हुए रूख हरे शाल,
हाय रे, मयूर-व्याल
पूँछ से जुड़े!
(3)
देखे कुछ इसी समय
दृश्य और-और
इसी ज्वाल से लहरे
हरे ठौर-ठौर ?
नूतन पल्लव-दल, कलि,
मँडलाते व्याकुल अलि
तनु-तन पर जाते बलि
बार-बार हार,
बही जो सुवास मन्द
मधुर भार-भरण-छन्द
मिली नहीं तुम्हें, बन्द
रहे, बन्धु, द्वार?
(4)
इसी समय झुकी आम्र
शाखा फल-भार
मिली नहीं क्या जब यह
देखा संसार?
उसके भीतर जो स्तव,
सुना नहीं कोई रव?
हाय दैव, दव-ही-दव
बन्धु को मिला!
कुहरित भी पञ्चम स्वर,
रहे बन्द कर्ण-कुहर,
मन पर प्राचीन मुहर,
हृदय पर शिला!
(5)
सोचो तो, क्या थी वह
भावना पवित्र,
बँधा जहाँ भेद भूल
मित्र से अमित्र।
तुम्हीं एक रहे मोड़
मुख, प्रिय, प्रिय मित्र छोड़,
कहो, कहो, कहाँ होड़
जहाँ जोड़, प्यार?
इसी रूप में रह स्थिर,
इसी भाव में घिर-घिर,
करोगे अपार तिमिर
सागर को पार?
(6)
बही बन्धु, वायु प्रबल
जो, न बँध सकी,
देखते थके तुम, बहती
न वह न थकी।
समझो वह प्रथम वर्ष,
रुका नहीं मुक्त हर्ष,
यौवन दुर्धर्ष कर्ष
मर्ष से लड़ा,
ऊपर मध्याह्न तपन
तपा किया, सन्-सन्-सन्
हिला-झुका तरु अगणन
बही वह हवा।
(7)
उड़ा दी गयी जो, वह भी
गयी उड़ा,
जली हुई आग कहो,
कब गयी जुड़ा?
जो थे प्राचीन पत्र
जीर्ण-शीर्ण नहीं छत्र,
झड़े हुए यत्र-तत्र
पड़े हुए थे,
उन्हीं से अपार प्यार
बँधा हुआ था असार,
मिला दुःख निराधार
तुम्हें इसलिए।
(8)
बही तोड़ बन्धन
छन्दों का निरुपाय,
वही किया की फिर-फिर
हवा ‘हाय-हाय’।
कमरे में, मध्य याम,
करते तब तुम विराम,
रचते अथवा ललाम
गतालोक लोक,
वह भ्रम मरुपथ पर की
यहाँ-वहाँ व्यस्त फिरी,
जला शोक-चिह्न, दिया
रँग विटप अशोक।
(9)
करती विश्राम, कहीं
नहीं मिला स्थान,
अन्ध-प्रगति बन्ध किया
सिन्धु को प्रयाण,
उठा उच्च ऊर्मि-भंग-
सहसा शत-शत तरंग,
क्षुब्ध, लुब्ध, नील-अंग-
अवगाहन-स्नान,
किया वहाँ भी दुर्दम
देख तरी विघ्न विषम,
उलट दिया अर्थागम
बनकर तूफान।
(10)
हुई आज शान्त, प्राप्त
कर प्रशान्त-वक्ष,
नहीं त्रास, अतः मित्र,
नहीं ‘रक्ष, ‘रक्ष’।
उड़े हुए थे जो कण,
उतरे पा शुभ वर्षण,
शुक्ति के हृदय से बन
मुक्ता झलके,
लखो, दिया है पहना
किसने यह हार बना
भारति-उर में अपना,
देख दृग थके!
5. ” हताश ” – Suryakant Tripathi Nirala Poems In Hindi
जीवन चिरकालिक क्रन्दन ।
मेरा अन्तर वज्रकठोर,
देना जी भरसक झकझोर,
मेरे दुख की गहन अन्ध
तम-निशि न कभी हो भोर,
क्या होगी इतनी उज्वलता
इतना वन्दन अभिनन्दन ?
हो मेरी प्रार्थना विफल,
हृदय-कमल-के जितने दल
मुरझायें, जीवन हो म्लान,
शून्य सृष्टि में मेरे प्राण
प्राप्त करें शून्यता सृष्टि की,
मेरा जग हो अन्तर्धान,
तब भी क्या ऐसे ही तम में
अटकेगा जर्जर स्यन्दन ?
6. ” ध्वनि ” – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला पोयम्स
अभी न होगा मेरा अन्त
अभी-अभी ही तो आया है
मेरे वन में मृदुल वसन्त
अभी न होगा मेरा अन्त
हरे-हरे ये पात,
डालियाँ, कलियाँ कोमल गात!
मैं ही अपना स्वप्न-मृदुल-कर
फेरूँगा निद्रित कलियों पर
जगा एक प्रत्यूष मनोहर
पुष्प-पुष्प से तन्द्रालस लालसा खींच लूँगा मैं,
अपने नवजीवन का अमृत सहर्ष सींच दूँगा मैं,
द्वार दिखा दूँगा फिर उनको
है मेरे वे जहाँ अनन्त
अभी न होगा मेरा अन्त।
मेरे जीवन का यह है जब प्रथम चरण,
इसमें कहाँ मृत्यु?
है जीवन ही जीवन
अभी पड़ा है आगे सारा यौवन
स्वर्ण-किरण कल्लोलों पर बहता रे, बालक-मन,
मेरे ही अविकसित राग से
विकसित होगा बन्धु, दिगन्त,
अभी न होगा मेरा अन्त।
7. ” तुम और मैं ” – Suryakant Tripathi Nirala
तुम तुंग – हिमालय – शृंग
और मैं चंचल-गति सुर-सरिता।
तुम विमल हृदय उच्छवास
और मैं कांत-कामिनी-कविता।
तुम प्रेम और मैं शांति,
तुम सुरा – पान – घन अंधकार,
मैं हूँ मतवाली भ्रांति।
तुम दिनकर के खर किरण-जाल,
मैं सरसिज की मुस्कान,
तुम वर्षों के बीते वियोग,
मैं हूँ पिछली पहचान।
तुम योग और मैं सिद्धि,
तुम हो रागानुग के निश्छल तप,
मैं शुचिता सरल समृद्धि।
तुम मृदु मानस के भाव
और मैं मनोरंजिनी भाषा,
तुम नन्दन – वन – घन विटप
और मैं सुख -शीतल-तल शाखा।
तुम प्राण और मैं काया,
तुम शुद्ध सच्चिदानंद ब्रह्म
मैं मनोमोहिनी माया।
तुम प्रेममयी के कंठहार,
मैं वेणी काल-नागिनी,
तुम कर-पल्लव-झंकृत सितार,
मैं व्याकुल विरह – रागिनी।
तुम पथ हो, मैं हूँ रेणु,
तुम हो राधा के मनमोहन,
मैं उन अधरों की वेणु।
तुम पथिक दूर के श्रांत
और मैं बाट – जोहती आशा,
तुम भवसागर दुस्तर
पार जाने की मैं अभिलाषा।
तुम नभ हो, मैं नीलिमा,
तुम शरत – काल के बाल-इन्दु
मैं हूँ निशीथ – मधुरिमा।
तुम गंध-कुसुम-कोमल पराग,
मैं मृदुगति मलय-समीर,
तुम स्वेच्छाचारी मुक्त पुरुष,
मैं प्रकृति, प्रेम – जंजीर।
तुम शिव हो, मैं हूँ शक्ति,
तुम रघुकुल – गौरव रामचन्द्र,
मैं सीता अचला भक्ति।
तुम आशा के मधुमास,
और मैं पिक-कल-कूजन तान,
तुम मदन – पंच – शर – हस्त
और मैं हूँ मुग्धा अनजान!
तुम अम्बर, मैं दिग्वसना,
तुम चित्रकार, घन-पटल-श्याम,
मैं तड़ित् तूलिका रचना।
तुम रण-ताण्डव-उन्माद नृत्य
मैं मुखर मधुर नूपुर-ध्वनि,
तुम नाद – वेद ओंकार – सार,
मैं कवि – श्रृंगार शिरोमणि।
तुम यश हो, मैं हूँ प्राप्ति,
तुम कुन्द – इन्दु – अरविन्द-शुभ्र
तो मैं हूँ निर्मल व्याप्ति।
8. ” अभी न होगा मेरा अन्त ” – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
अभी न होगा मेरा अन्त
अभी-अभी ही तो आया है,
मेरे वन में मृदुल वसन्त
अभी न होगा मेरा अन्त।
हरे-हरे ये पात
डालियाँ, कलियाँ कोमल गात।
मैं ही अपना स्वप्न-मृदुल-कर,
फेरूँगा निद्रित कलियों पर
जगा एक प्रत्यूष मनोहर
पुष्प-पुष्प से तन्द्रालस लालसा खींच लूँगा मैं
अपने नवजीवन का अमृत सहर्ष सींच दूँगा मैं
द्वार दिखा दूँगा फिर उनको,
है मेरे वे जहाँ अनन्त
अभी न होगा मेरा अन्त
मेरे जीवन का यह है जब प्रथम चरण,
इसमें कहाँ मृत्यु
है जीवन ही जीवन
अभी पड़ा है आगे सारा यौवन।
स्वर्ण-किरण कल्लोलों पर बहता रे
बालक-मन
मेरे ही अविकसित राग से,
विकसित होगा बन्धु, दिगन्त
अभी न होगा मेरा अन्त।
9. ” मौन ” – Suryakant Tripathi Nirala Poems
बैठ लें कुछ देर,
आओ,एक पथ के पथिक-से
प्रिय, अंत और अनन्त के,
तम-गहन-जीवन घेर।
मौन मधु हो जाए
भाषा मूकता की आड़ में,
मन सरलता की बाढ़ में,
जल-बिन्दु सा बह जाए।
सरल अति स्वच्छ्न्द
जीवन, प्रात के लघुपात से,
उत्थान-पतनाघात से
रह जाए चुप,निर्द्वन्द।
10. ” तोड़ती पत्थर ” – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला पोयम्स
वह तोड़ती पत्थर,
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर
वह तोड़ती पत्थर।
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार,
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार,
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।
चढ़ रही थी धूप,
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप,
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्रायः हुई दुपहर
वह तोड़ती पत्थर।
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार,
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा
“मैं तोड़ती पत्थर।”
11. ” क्षमा-प्रार्थना ” – Suryakant Tripathi Nirala Poems
आज बह गई मेरी वह व्याकुल संगीत-हिलोर
किस दिगंत की ओर?
शिथिल हो गई वेणी मेरी,
शिथिल लाज की ग्रन्थि,
शिथिल है आज बाहु-दृढ़-बन्धन,
शिथिल हो गया है मेरा वह चुम्बन!
शिथिल सुमन-सा पड़ा सेज पर अंचल,
शिथिल हो गई है वह चितवन चंचल!
शिथिल आज है कल का कूजन
पिक की पंचम तान,
शिथिल आज वह मेरा आदर
मेरा वह अभिमान!
यौवन-वन-अभिसार-निशा का यह कैसा अवसान?
सुख-दुख की धाराओं में कल
बहने की थी अटल प्रतिज्ञा
कितना दृढ़ विश्वास,
और आज कितनी दुर्बल हूँ
लेती ठंढ़ी साँस!
प्रिय अभिनव!
मेरे अन्तर के मृदु अनुभव!
इतना तो कह दो
मिटी तुम्हारे इस जीवन की प्यास?
और हाँ, यह भी, जीवन-नाथ!
मेरी रजनी थी यदि तुमको प्यारी
तो प्यारा क्या होगा यह अलस प्रभात?
वर्षा, शरत, वसन्त, शिशिर, ऋतु शीत,
पार किये तुमने सुन सुनकर मेरे जो संगीत,
घोर ग्रीष्म में वैसा ही मन
लगा, सुनोगे क्या मेरे वे गीत
कहो, जीवन-धन!
माला में ही सूख गये जो फूल
क्या न पड़ेगी उनपर, प्रियतम,
एक दृष्टि अनुकूल!
ताक रहे हो दृष्टि,
जाँच रहे हो या मन?
क्षमा कर रहे हो अथवा तुम देव,
अपने जन के स्खलन और सब पतन?
बाँधे से तुमने जिस स्वर में तार,
उतर गये उससे ये बारम्बार!
दुर्बल मेरे प्राण
कहो भला फिर
कैसे गाते रचे तुम्हारे गान?
(महाकवि श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर के भावों से)
12. ” जागो फिर एक बार ” – Suryakant Tripathi Nirala
जागो फिर एक बार
प्यार जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें
अरुण-पंख तरुण-किरण
खड़ी खोलती है द्वार
जागो फिर एक बार!
आँखे अलियों-सी
किस मधु की गलियों में फँसी,
बन्द कर पाँखें
पी रही हैं मधु मौन
अथवा सोयी कमल-कोरकों में?
बन्द हो रहा गुंजार
जागो फिर एक बार
अस्ताचल चले रवि,
शशि-छवि विभावरी में
चित्रित हुई है देख
यामिनीगन्धा जगी,
एकटक चकोर-कोर दर्शन-प्रिय
आशाओं भरी मौन भाषा बहु भावमयी!
घेर रहा चन्द्र को चाव से,
शिशिर-भार-व्याकुल कुल
खुले फूल झूके हुए
आया कलियों में मधुर
मद-उर-यौवन उभार
जागो फिर एक बार!
पिउ-रव पपीहे प्रिय बोल रहे,
सेज पर विरह-विदग्धा वधू
याद कर बीती बातें
रातें मन-मिलन की,
मूँद रही पलकें चारु
नयन जल ढल गये
लघुतर कर व्यथा-भार
जागो फिर एक बार!
सहृदय समीर जैसे,
पोछों प्रिय, नयन-नीर
शयन-शिथिल बाहें
भर स्वप्निल आवेश में
आतुर उर वसन-मुक्त कर दो,
सब सुप्ति सुखोन्माद हो
छूट-छूट अलस
फैल जाने दो पीठ पर
कल्पना से कोमन
ऋतु-कुटिल प्रसार-कामी केश-गुच्छ।
तन-मन थक जायें
मृदु सरभि-सी समीर में
बुद्धि बुद्धि में हो लीन
मन में मन, जी जी में,
एक अनुभव बहता रहे
उभय आत्माओं मे
कब से मैं रही पुकार
जागो फिर एक बार!
उगे अरुणाचल में रवि,
आयी भारती-रति कवि-कण्ठ में
क्षण-क्षण में परिवर्तित
होते रहे प्रृकति-पट
गया दिन, आयी रात,
गयी रात, खुला दिन
ऐसे ही संसार के बीते दिन, पक्ष, मास
वर्ष कितने ही हजार
जागो फिर एक बार!
13. ” क्या गाऊँ ” – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
क्या गाऊँ? माँ! क्या गाऊँ?
गूँज रहीं हैं जहाँ राग-रागिनियाँ,
गाती हैं किन्नरियाँ कितनी परियाँ
कितनी पंचदशी कामिनियाँ,
वहाँ एक यह लेकर वीणा दीन
तन्त्री-क्षीण, नहीं जिसमें कोई झंकार नवीन,
रुद्ध कण्ठ का राग अधूरा कैसे तुझे सुनाऊँ?
माँ! क्या गाऊँ?
छाया है मन्दिर में तेरे यह कितना अनुराग!
चढते हैं चरणों पर कितने फूल
मृदु-दल, सरस-पराग,
गन्ध-मोद-मद पीकर मन्द समीर
शिथिल चरण जब कभी बढाती आती,
सजे हुए बजते उसके अधीर नूपुर-मंजीर!
वहाँ एक निर्गन्ध कुसुम उपहार,
नहीं कहीं जिसमें पराग-संचार सुरभि-संसार
कैसे भला चढ़ाऊँ?
माँ? क्या गाऊँ?
14. ” और न अब भरमाओ ” – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला पोयम्स
और न अब भरमाओ,
पौर आओ, तुम आओ!
जी की जो तुमसे चटकी है,
बुद्धि-शुद्धि भटकी-भटकी है,
और जनों की लट लटकी है?
ऐसे अकेले बचाओ,
छोड़कर दूर न जाओ।
खाली पूरे हाथ गये हैं,
ऊपर नये-नये उनये हैं,
सुख से मिलें जो दुख-दुनये हैं,
बेर न वीर लगाओ,
बढ़ाकर हाथ बटाओ!
15. ” मातृ वंदना ” – Suryakant Tripathi Nirala Poems In Hindi
नर जीवन के स्वार्थ सकल
बलि हों तेरे चरणों पर, माँ
मेरे श्रम सिंचित सब फल,
जीवन के रथ पर चढ़कर,
सदा मृत्यु पथ पर बढ़ कर
महाकाल के खरतर शर सह
सकूँ, मुझे तू कर दृढ़तर।
जागे मेरे उर में तेरी,
मूर्ति अश्रु जल धौत विमल
दृग जल से पा बल बलि कर दूँ,
जननि, जन्म श्रम संचित पल
बाधाएँ आएँ तन पर,
देखूँ तुझे नयन मन भर
मुझे देख तू सजल दृगों से
अपलक, उर के शतदल पर
क्लेद युक्त, अपना तन दूंगा।
मुक्त करूंगा तुझे अटल
तेरे चरणों पर दे कर बलि
सकल श्रेय श्रम संचित फल।
16. ” भारती वन्दना ” – Suryakant Tripathi Nirala
भारति, जय, विजय करे
कनक-शस्य-कमल धरे!
लंका पदतल-शतदल
गर्जितोर्मि सागर-जल
धोता शुचि चरण-युगल
स्तव कर बहु अर्थ भरे!
तरु-तण वन-लता-वसन
अंचल में खचित सुमन
गंगा ज्योतिर्जल-कण
धवल-धार हार लगे!
मुकुट शुभ्र हिम-तुषार
प्राण प्रणव ओंकार
ध्वनित दिशाएँ उदार
शतमुख-शतरव-मुखरे!
17. ” जुही की कली ” – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला पोयम्स
विजन-वन-वल्लरी पर
सोती थी सुहाग-भरी–स्नेह-स्वप्न-मग्न
अमल-कोमल-तनु तरुणी–जुही की कली,
दृग बन्द किये, शिथिल–पत्रांक में,
वासन्ती निशा थी,
विरह-विधुर-प्रिया-संग छोड़
किसी दूर देश में था पवन
जिसे कहते हैं मलयानिल।
आयी याद बिछुड़न से मिलन की वह मधुर बात,
आयी याद चाँदनी की धुली हुई आधी रात,
आयी याद कान्ता की कमनीय गात,
फिर क्या? पवन
उपवन-सर-सरित गहन -गिरि-कानन
कुञ्ज-लता-पुञ्जों को पार कर
पहुँचा जहाँ उसने की केलि
कली खिली साथ।
सोती थी,
जाने कहो कैसे प्रिय-आगमन वह?
नायक ने चूमे कपोल,
डोल उठी वल्लरी की लड़ी जैसे हिंडोल।
इस पर भी जागी नहीं,
चूक-क्षमा माँगी नहीं,
निद्रालस बंकिम विशाल नेत्र मूँदे रही
किंवा मतवाली थी यौवन की मदिरा पिये,
कौन कहे?
निर्दय उस नायक ने
निपट निठुराई की
कि झोंकों की झड़ियों से
सुन्दर सुकुमार देह सारी झकझोर डाली,
मसल दिये गोरे कपोल गोल,
चौंक पड़ी युवती
चकित चितवन निज चारों ओर फेर,
हेर प्यारे को सेज-पास,
नम्र मुख हँसी-खिली,
खेल रंग, प्यारे संग
18. ” सच है ” – Suryakant Tripathi Nirala Poems In Hindi
यह सच है:
तुमने जो दिया दान दान वह,
हिन्दी के हित का अभिमान वह,
जनता का जन-ताका ज्ञान वह,
सच्चा कल्याण वह अथच है
यह सच है!
बार बार हार हार मैं गया,
खोजा जो हार क्षार में नया,
उड़ी धूल, तन सारा भर गया,
नहीं फूल, जीवन अविकच है
यह सच है!
19. ” प्रेयसी ” – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
घेर अंग-अंग को
लहरी तरंग वह प्रथम तारुण्य की,
ज्योतिर्मयि-लता-सी हुई मैं तत्काल
घेर निज तरु-तन।
खिले नव पुष्प जग प्रथम सुगन्ध के,
प्रथम वसन्त में गुच्छ-गुच्छ।
दृगों को रँग गयी प्रथम प्रणय-रश्मि
चूर्ण हो विच्छुरित
विश्व-ऐश्वर्य को स्फुरित करती रही
बहु रंग-भाव भर
शिशिर ज्यों पत्र पर कनक-प्रभात के,
किरण-सम्पात से।
दर्शन-समुत्सुक युवाकुल पतंग ज्यों
विचरते मञ्जु-मुख
गुञ्ज-मृदु अलि-पुञ्ज
मुखर उर मौन वा स्तुति-गीत में हरे।
प्रस्रवण झरते आनन्द के चतुर्दिक
भरते अन्तर पुलकराशि से बार-बार
चक्राकार कलरव-तरंगों के मध्य में
उठी हुई उर्वशी-सी,
कम्पित प्रतनु-भार,
विस्तृत दिगन्त के पार प्रिय बद्ध-दृष्टि
निश्चल अरूप में।
हुआ रूप-दर्शन
जब कृतविद्य तुम मिले
विद्या को दृगों से,
मिला लावण्य ज्यों मूर्ति को मोहकर,
शेफालिका को शुभ हीरक-सुमन-हार,
श्रृंगार
शुचिदृष्टि मूक रस-सृष्टि को।
याद है, उषःकाल,
प्रथम-किरण-कम्प प्राची के दृगों में,
प्रथम पुलक फुल्ल चुम्बित वसन्त की
मञ्जरित लता पर,
प्रथम विहग-बालिकाओं का मुखर स्वर
प्रणय-मिलन-गान,
प्रथम विकच कलि वृन्त पर नग्न-तनु
प्राथमिक पवन के स्पर्श से काँपती,
करती विहार
उपवन में मैं, छिन्न-हार
मुक्ता-सी निःसंग,
बहु रूप-रंग वे देखती, सोचती;
मिले तुम एकाएक,
देख मैं रुक गयी
चल पद हुए अचल,
आप ही अपल दृष्टि,
फैला समाष्टि में खिंच स्तब्ध मन हुआ।
दिये नहीं प्राण जो इच्छा से दूसरे को,
इच्छा से प्राण वे दूसरे के हो गये !
दूर थी,
खिंचकर समीप ज्यों मैं हुई।
अपनी ही दृष्टि में
जो था समीप विश्व,
दूर दूरतर दिखा।
मिली ज्योति छबि से तुम्हारी
ज्योति-छबि मेरी,
नीलिमा ज्यों शून्य से,
बँधकर मैं रह गयी,
डूब गये प्राणों में
पल्लव-लता-भार
वन-पुष्प-तरु-हार
कूजन-मधुर चल विश्व के दृश्य सब,
सुन्दर गगन के भी रूप दर्शन सकल
सूर्य-हीरकधरा प्रकृति नीलाम्बरा,
सन्देशवाहक बलाहक विदेश के।
प्रणय के प्रलय में सीमा सब खो गयी !
बँधी हुई तुमसे ही
देखने लगी मैं फिर-
फिर प्रथम पृथ्वी को,
भाव बदला हुआ
पहले ही घन-घटा वर्षण बनी हुई,
कैसा निरञ्जन यह अञ्जन आ लग गया !
देखती हुई सहज
हो गयी मैं जड़ीभूत,
जगा देहज्ञान,
फिर याद गेह की हुई,
लज्जित
उठे चरण दूसरी ओर को
विमुख अपने से हुई !
चली चुपचाप,
मूक सन्ताप हृदय में,
पृथुल प्रणय-भार।
देखते निमेशहीन नयनों से तुम मुझे
रखने को चिरकाल बाँधकर दृष्टि से
अपना ही नारी रूप, अपनाने के लिए,
मर्त्य में स्वर्गसुख पाने के अर्थ, प्रिय,
पीने को अमृत अंगों से झरता हुआ।
कैसी निरलस दृष्टि !
( सूर्यकांत त्रिपाठी निराला कविता -हिन्दी कविता)
सजल शिशिर-धौत पुष्प ज्यों प्रात में
देखता है एकटक किरण-कुमारी को।
पृथ्वी का प्यार, सर्वस्व उपहार देता
नभ की निरुपमा को,
पलकों पर रख नयन
करता प्रणयन, शब्द
भावों में विश्रृंखल बहता हुआ भी स्थिर।
देकर न दिया ध्यान मैंने उस गीत पर
कुल मान-ग्रन्थि में बँधकर चली गयी,
जीते संस्कार वे बद्ध संसार के
उनकी ही मैं हुई !
समझ नहीं सकी, हाय,
बँधा सत्य अञ्चल से
खुलकर कहाँ गिरा।
बीता कुछ काल,
देह-ज्वाला बढ़ने लगी,
नन्दन निकुञ्ज की रति को ज्यों मिला मरु,
उतरकर पर्वत से निर्झरी भूमि पर
पंकिल हुई, सलिल-देह कलुषित हुआ।
करुणा को अनिमेष दृष्टि मेरी खुली,
किन्तु अरुणार्क, प्रिय, झुलसाते ही रहे,
भर नहीं सके प्राण रूप-विन्दु-दान से।
तब तुम लघुपद-विहार
अनिल ज्यों बार-बार
वक्ष के सजे तार झंकृत करने लगे
साँसों से, भावों से, चिन्ता से कर प्रवेश।
अपने उस गीत पर
सुखद मनोहर उस तान का माया में,
लहरों में हृदय की
भूल-सी मैं गयी
संसृति के दुःख-घात,
श्लथ-गात, तुममें ज्यों
रही मैं बद्ध हो।
किन्तु हाय,
रूढ़ि, धर्म के विचार,
कुल, मान, शील, ज्ञान,
उच्च प्राचीर ज्यों घेरे जो थे मुझे,
घेर लेते बार-बार,
जब मैं संसार में रखती थी पदमात्र,
छोड़ कल्प-निस्सीम पवन-विहार मुक्त।
दोनों हम भिन्न-वर्ण,
भिन्न-जाति, भिन्न-रूप,
भिन्न-धर्मभाव, पर
केवल अपनाव से, प्राणों से एक थे।
किन्तु दिन रात का,
जल और पृथ्वी का
भिन्न सौन्दर्य से बन्धन स्वर्गीय है
समझे यह नहीं लोग
व्यर्थ अभिमान के!
अन्धकार था हृदय
अपने ही भार से झुका हुआ, विपर्यस्त।
गृह-जन थे कर्म पर।
मधुर प्रात ज्यों द्वार पर आये तुम,
नीड़-सुख छोड़कर मुझे मुक्त उड़ने को संग
किया आह्वान मुझे व्यंग के शब्द में।
आयी मैं द्वार पर सुन प्रिय कण्ठ-स्वर,
अश्रुत जो बजता रहा था झंकार भर
जीवन की वीणा में,
सुनती थी मैं जिसे।
पहचाना मैंने, हाथ बढ़ाकर तुमने गहा।
चल दी मैं मुक्त, साथ।
एक बार की ऋणी
उद्धार के लिए,
शत बार शोध की उर में प्रतिज्ञा की।
पूर्ण मैं कर चुकी।
गर्वित, गरीयसी अपने में आज मैं।
रूप के द्वार पर
मोह की माधुरी
कितने ही बार पी मूर्च्छित हुए हो, प्रिय,
जागती मैं रही,
गह बाँह, बाँह में भरकर सँभाला तुम्हें।
20. ” भिक्षुक ” – Suryakant Tripathi Nirala Poems
वह आता
दो टूक कलेजे को करता, पछताता
पथ पर आता।
पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को — भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।
साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाए,
बाएँ से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाए।
भूख से सूख ओठ जब जाते
दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?
घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए !
ठहरो ! अहो मेरे हृदय में है अमृत, मैं सींच दूँगा
अभिमन्यु जैसे हो सकोगे तुम
तुम्हारे दुख मैं अपने हृदय में खींच लूँगा।
Suryakant Tripathi Nirala अंतिम शब्द।
तो, आज के लिए बस इतना ही। उपरोक्त सभी (Suryakant Tripathi Nirala Poems In Hindi) / सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविताएँ हिंदी में पढ़ने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हमें खेद है कि इस पोस्ट में हमने सभी सूर्यकांत त्रिपाठी निराला / Suryakant Tripathi Nirala के कविताएं नहीं लिखी।
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