Hello Readers!!! You are highly welcome on our website to read about Sarveshwar Dayal Saxena’s Poems In Hindi / सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की हिंदी कविताएं on our informational website Famous Hindi Poems.
Famous Hindi Poems सूचना वेबसाइट पर हिंदी में Sarveshwar Dayal Saxena Poems के बारे में पढ़ने के लिए हमारी वेबसाइट पर आपका बहुत स्वागत है। नमस्कार दोस्तों, आज की पोस्ट में, आप Sarveshwar Dayal Saxena Poems In Hindi में पढ़ेंगे ।
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, जो हिन्दी की नई कविता के सबसे प्रमुख पात्रों में से एक हैं, ऐसे संयोग से जुड़े हैं जो शायद किसी हिंदी साहित्यकार के साथ नहीं है। सर्वेश्वर अपने समय में अपने समकालीन लोगों में सबसे स्पष्ट दृष्टि के व्यक्ति थे। उनके भीतर न मुक्तिबोध जैसा मध्यमवर्गीय उत्साह था और न ही श्रीकांत वर्मा जैसा ‘बुखार’।
Sarveshwar Dayal Saxena के जीवन से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातें।
Sarveshwar Dayal Saxena ( 15 September 1927 – 23 September 1983 ) एक हिंदी लेखक, कवि, स्तंभकार और नाटककार थे। वह उन सात कवियों में से एक थे जिन्होंने पहली बार “तार सप्तकों” में से एक में प्रकाशित किया, जिसने ‘प्रयोगवाद’ युग की शुरुआत की, जो समय के साथ “नई कविता” आंदोलन बन गया। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के बस्ती शहर में हुआ था। उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अपनी शिक्षा प्राप्त की।
आज उन्हें एक बहुत ही महत्वपूर्ण राजनीतिक कवि के रूप में माना जाता है। उन्होंने अपने काव्य संग्रह, “खुटियों पर तांगे लोग” के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार जीता। Sarveshwar Dayal Saxena ने “मुक्ति की आकांक्षा” भी लिखी, जिसने उनके समय में स्वतंत्रता की आवश्यकता को दर्शाया। उनकी एक कविता को सिद्धार्थ प्रताप सिंह द्वारा “अपनी बिटिया के लिए एक कविता” शीर्षक से एक लघु एनीमेशन में बदल दिया गया है।
उन्होंने ‘शाम एक किशन’ भी लिखा था। उन्होंने कई बच्चों की कविताएँ भी लिखीं जिनमें से इब्न बतूता का जुता लोकप्रिय है। उन्होंने बच्चों की पत्रिका “पराग” का संपादन किया। तो आइए देखते हैं Sarveshwar Dayal Saxena की कुछ प्रसिद्ध कविताएं हिंदी में।
Sarveshwar Dayal Saxena Poems In Hindi | सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविताएं
1. “ देशगान “ – Sarveshwar Dayal Saxena
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।
बिन अदालत औ मुवक्किल के मुकदमा पेश है।
आँख में दरिया है सबके
दिल में है सबके पहाड़,
आदमी भूगोल है जी चाहा नक्शा पेश है।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।
हैं सभी माहिर उगाने
में हथेली पर फसल,
औ हथेली डोलती दर-दर बनी दरवेश है।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।
पेड़ हो या आदमी,
कोई फरक पड़ता नहीं
लाख काटे जाइए जंगल हमेशा शेष हैं।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।
प्रश्न जितने बढ़ रहे
घट रहे उतने जवाब,
होश में भी एक पूरा देश यह बेहोश है।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।
खूँटियों पर ही टँगा,
रह जाएगा क्या आदमी ?
सोचता, उसका नहीं यह खूँटियों का दोष है।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।
2. “ जंगल की याद मुझे मत दिलाओ “
कुछ धुआँ,
कुछ लपटें,
कुछ कोयले,
कुछ राख छोड़ता,
चूल्हे में लकड़ी की तरह मैं जल रहा हूँ,
मुझे जंगल की याद मत दिलाओ!
हरे-भरे जंगल की,
जिसमें मैं सम्पूर्ण खड़ा था,
चिड़ियाँ मुझ पर बैठ चहचहाती थीं,
धामिन मुझ से लिपटी रहती थी,
और गुलदार उछलकर मुझ पर बैठ जाता था।
जँगल की याद,
अब उन कुल्हाड़ियों की याद रह गयी है,
जो मुझ पर चली थीं
उन आरों की जिन्होंने
मेरे टुकड़े-टुकड़े किये थे
मेरी सम्पूर्णता मुझसे छीन ली थी !
चूल्हे में,
लकड़ी की तरह अब मैं जल रहा हूँ,
बिना यह जाने कि जो हाँडी चढ़ी है,
उसकी खुदबुद झूठी है
या उससे किसी का पेट भरेगा,
आत्मा तृप्त होगी,
बिना यह जाने
कि जो चेहरे मेरे सामने हैं,
वे मेरी आँच से
तमतमा रहे हैं
या गुस्से से,
वे मुझे उठा कर् चल पड़ेंगे
या मुझ पर पानी डाल सो जायेंगे।
मुझे जंगल की याद मत दिलाओ!
एक-एक चिनगारी
झरती पत्तियाँ हैं,
जिनसे अब भी मैं चूम लेना चाहता हूँ
इस धरती को
जिसमें मेरी जड़ें थीं!
3. “ स्वेटर “ – Sarveshwar Dayal Saxena Poems
तुमने जो स्वेटर
मुझे बुनकर दिया है
उसमें कितने घर हैं
यह मैं नहीं जानता,
न ही यह
कि हर घर में तुम कितनी
और किस तरह बैठी हो,
रोशनी आने
और धुआँ निकलने के रास्ते
तुमने छोड़े हैं या नहीं,
सिर्फ़ यह जानता हूँ,
कि मेरी एक धड़कन है
और उसके ऊपर चन्द पसलियाँ हैं
और उनसे चिपके
घर ही घर हैं
तुम्हारे रचे घर
मेरे न हो कर भी मेरे लिए.
अब इसे पहनकर
बाहर की बर्फ़ में
मैं निकल जाऊँगा।
गुर्राती कटखनी हवाओं को,
मेरी पसलियों तक आने से
रोकने के लिए
तुम्हारे ये घर
कितनी किले बन्दी कर सकेंगे
यह मैं नही जानता,
इतना ज़रूर जानता हूँ
कि उनके नीचे बेचैन
मेरी धड़कनों के साथ
उनका सीधा टकराव शुरू हो गया है।
मानता हूँ,
जहाँ पसलियाँ अड़ाऊँगा
वहाँ ये मेरे साथ होंगे
लेकिन जहाँ मात खाऊँगा
वहाँ इन धड़कनों के साथ कौन होगा?
सदियों से
हर एक,
एक दूसरे के लिए
ऐसे ही घर रचता रहा है
जो पसलियों के नीचे के लिए नहीं होते !
इससे अच्छा था
तुम प्यार भरी दृष्टि
मशाल की तरह
इन धड़कनों के पास गड़ा देतीं
कम – से- कम उनसे
मैं शत्रुओं का सही – सही
चेहरा तो पहचान लेता
गुर्राती हवाओं के दाँत
कितने नुकीले हैं जान लेता।
अब तो जब मैं,
तूफ़ानों से लड़ता – जूझता
औंधे मुँह गिर पड़ूँगा
तो आँखों की बुझती रोशनी में
तुम्हारी सिलाइयाँ
नंगे पेड़ों – सी दीखेंगी
जिन पर न कोई पत्ता होगा न पक्षी
जो धीरे – धीरे बर्फ़ से इस कदर सफ़ेद हो जायेंगी
जैसे लाश गाड़ी में शव ले जाने वाले।
इसके बाद,
तूफ़ान खत्म हो जाने पर
शायद तुम मेरी खोज में आओ
और मेरी लाश को
पसलियों पर चिपके अपने घरों के सहारे
पहचान लो
और खुश होओ कि तुमने
मेरी पहचान बनाने में
मदद की है
और दूसरा स्वेटर बुनने लगो।
4. “ फसल “ – Sarveshwar Dayal Saxena
हल की तरह
कुदाल की तरह
या खुरपी की तरह
पकड़ भी लूँ कलम तो,
फिर भी फसल काटने
मिलेगी नहीं हम को ।
हम तो ज़मीन ही तैयार कर पायेंगे
क्रांतिबीज बोने कुछ बिरले ही आयेंगे
हरा-भरा वही करेंगें मेरे श्रम को,
सिलसिला मिलेगा आगे मेरे क्रम को ।
कल जो भी फसल उगेगी, लहलहाएगी
मेरे ना रहने पर भी
हवा से इठलाएगी,
तब मेरी आत्मा सुनहरी धूप बन बरसेगी
जिन्होने बीज बोए थे
उन्हीं के चरण परसेगी,
काटेंगे उसे जो फिर वो ही उसे बोएंगे
हम तो कहीं धरती के नीचे दबे सोयेंगे ।
5. “ धीरे-धीरे “
भरी हुई बोतलों के पास
ख़ाली गिलास-सा
मैं रख दिया गया हूँ।
धीरे-धीरे अँधेरा आएगा
और लड़खड़ाता हुआ
मेरे पास बैठ जाएगा।
वह कुछ कहेगा नहीं
मुझे बार-बार भरेगा
ख़ाली करेगा,
भरेगा—ख़ाली करेगा,
और अंत में
ख़ाली बोतलों के पास
ख़ाली गिलास-सा
छोड़ जाएगा।
मेरे दोस्तो!
तुम मौत को नहीं पहचानते
चाहे वह आदमी की हो
या किसी देश की
चाहे वह समय की हो
या किसी वेश की।
सब-कुछ धीरे-धीरे ही होता है
धीरे-धीरे ही बोतलें ख़ाली होती हैं
गिलास भरता है,
हाँ, धीरे-धीरे ही
आत्मा ख़ाली होती है
आदमी मरता है।
उस देश का मैं क्या करूँ
जो धीरे-धीरे लड़खड़ाता हुआ
मेरे पास बैठ गया है।
मेरे दोस्तो!
तुम मौत को नहीं पहचानते
धीरे-धीरे अँधेरे के पेट में
सब समा जाता है,
फिर कुछ बीतता नहीं
बीतने को कुछ रह भी नहीं जाता
ख़ाली बोतलों के पास
ख़ाली गिलास-सा सब पड़ा रह जाता है –
झंडे के पास देश
नाम के पास आदमी
प्यार के पास समय
दाम के पास वेश,
सब पड़ा रह जाता है
ख़ाली बोतलों के पास
ख़ाली गिलास-सा
‘धीरे-धीरे’ –
मुझे सख़्त नफ़रत है
इस शब्द से।
धीरे-धीरे ही घुन लगता है
अनाज मर जाता है,
धीरे-धीरे ही दीमकें सब-कुछ चाट जाती हैं
साहस डर जाता है।
धीरे-धीरे ही विश्वास खो जाता है
सकंल्प सो जाता है।
मेरे दोस्तो!
मैं उस देश का क्या करूँ
जो धीरे-धीरे
धीरे-धीरे ख़ाली होता जा रहा है
भरी बोतलों के पास
ख़ाली गिलास-सा
पड़ा हुआ है।
धीरे-धीरे
अब मैं ईश्वर भी नहीं पाना चाहता,
धीरे-धीरे
अब मैं स्वर्ग भी नहीं जाना चाहता,
धीरे-धीरे
अब मुझे कुछ भी नहीं है स्वीकार
चाहे वह घृणा हो चाहे प्यार।
मेरे दोस्तो!
धीरे-धीरे कुछ नहीं होता
सिर्फ़ मौत होती है,
धीरे-धीरे कुछ नहीं आता
सिर्फ़ मौत आती है,
धीरे-धीरे कुछ नहीं मिलता
सिर्फ़ मौत मिलती है,
मौत –
ख़ाली बोतलों के पास
ख़ाली गिलास-सी।
सुनो,
ढोल की लय धीमी होती जा रही है
धीरे-धीरे एक क्रांति-यात्रा
शव-यात्रा में बदल रही है।
सड़ाँध फैल रही है –
नक़्शे पर देश के
और आँखों में प्यार के
सीमांत धुँधले पड़ते जा रहे हैं
और हम चूहों-से देख रहे हैं।
6. “ सिगरेट पीती हुई औरत “
पहली बार
सिगरेट पीती हुई औरत
मुझे अच्छी लगी।
क्योंकि वह प्यार की बातें
नहीं कर रही थी।
चारों तरफ़ फैलता धुआँ
मेरे भीतर धधकती आग के
बुझने का गवाह नहीं था।
उसकी आँखों में
एक अदालत थी ,
एक काली चमक
जैसे कोई वकील उसके भीतर जिरह कर रहा हो
और उसे सवालों का अनुमान ही नहीं
उनके जवाब भी मालूम हों।
वस्तुतः वह नहा कर आई थी
किसी समुद्र में,
और मेरे पास इस तरह बैठी थी
जैसे धूप में बैठी हो।
उस समय धुएँ का छल्ला
समुद्र-तट पर गड़े छाते की तरह
खुला हुआ था –
तृप्तिकर, सुखविभोर, संतुष्ट,
उसको मुझमें खोलता और बचाता भी।
7. “ अजनबी देश है यह “
अजनबी देश है यह, जी यहाँ घबराता है
कोई आता है यहाँ पर न कोई जाता है।
जागिए तो यहाँ मिलती नहीं आहट कोई,
नींद में जैसे कोई लौट-लौट जाता है।
होश अपने का भी रहता नहीं मुझे जिस वक्त
द्वार मेरा कोई उस वक्त खटखटाता है।
शोर उठता है कहीं दूर क़ाफिलों का-सा
कोई सहमी हुई आवाज़ में बुलाता है।
देखिए तो वही बहकी हुई हवाएँ हैं,
फिर वही रात है, फिर-फिर वही सन्नाटा है।
हम कहीं और चले जाते हैं अपनी धुन में
रास्ता है कि कहीं और चला जाता है।
दिल को नासेह की ज़रूरत है न चारागर की
आप ही रोता है औ आप ही समझाता है ।
8. “ उठ मेरी बेटी सुबह हो गई “
पेड़ों के झुनझुने,
बजने लगे,
लुढ़कती आ रही है
सूरज की लाल गेंद।
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।
तूने जो छोड़े थे,
गैस के गुब्बारे,
तारे अब दिखाई नहीं देते,
जाने कितने ऊपर चले गए
चांद देख, अब गिरा, अब गिरा,
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।
तूने थपकियां देकर,
जिन गुड्डे-गुड्डियों को सुला दिया था,
टीले, मुंहरंगे आंख मलते हुए बैठे हैं,
गुड्डे की ज़रवारी टोपी
उलटी नीचे पड़ी है, छोटी तलैया
वह देखो उड़ी जा रही है चूनर
तेरी गुड़िया की, झिलमिल नदी
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।
तेरे साथ थककर
सोई थी जो तेरी सहेली हवा,
जाने किस झरने में नहा के आ गई है,
गीले हाथों से छू रही है तेरी तस्वीरों की किताब,
देख तो, कितना रंग फैल गया
उठ, घंटियों की आवाज धीमी होती जा रही है
दूसरी गली में मुड़ने लग गया है बूढ़ा आसमान,
अभी भी दिखाई दे रहे हैं उसकी लाठी में बंधे
रंग बिरंगे गुब्बारे, कागज़ पन्नी की हवा चर्खियां,
लाल हरी ऐनकें, दफ्ती के रंगीन भोंपू,
उठ मेरी बेटी, आवाज दे, सुबह हो गई।
उठ देख,
बंदर तेरे बिस्कुट का डिब्बा लिए,
छत की मुंडेर पर बैठा है,
धूप आ गई।
9. “ माँ की याद “
चींटियाँ अंडे उठाकर जा रही हैं,
और चींटियाँ नीड़ को चारा दबाए,
थान पर बछड़ा रँभाने लग गया है
टकटकी सूने विजन पथ पर लगाए,
थाम आँचल, थका बालक रो उठा है,
है खड़ी माँ शीश का गट्ठर गिराए,
बाँह दो चुमकारती-सी बढ़ रही है,
साँझ से कह दो बुझे दीपक जलाए।
शोर डैनों में छिपाने के लिए अब,
शोर, माँ की गोद जाने के लिए अब,
शोर घर-घर नींद रानी के लिए अब,
शोर परियों की कहानी के लिए अब,
एक मैं ही हूँ—कि मेरी साँझ चुप है,
एक मेरे दीप में ही बल नहीं है,
एक मेरी खाट का विस्तार नभ-सा
क्योंकि मेरे शीश पर आँचल नहीं है।
10. “ प्रार्थना “ – Sarveshwar Dayal Saxena
एक
नहीं, नहीं, प्रभु तुमसे
शक्ति नहीं माँगूँगा ।
अर्जित करूँगा उसे मरकर बिखरकर
आज नहीं, कल सही आऊँगा उबरकर
कुचल भी गया तो लज्जा किस बात की |
रोकूँगा पहाड़ गिरता
शरण नहीं भागूँगा,
नहीं नहीं प्रभु तुमसे
शक्ति नहीं माँगूँगा।
कब माँगी गंध तुमसे गंधहीन फूल ने
कब माँगी कोमलता तीखे खिंचे शूल ने
तुमने जो दिया, दिया, अब जो है, मेरा है।
सोओ तुम, व्यथा रैन
अब मैं ही जागूँगा,
नहीं नहीं प्रभु तुमसे
शक्ति नहीं माँगूँगा।
दो
दुर्गम पथ तेरे हों
थके चरण मेरे हों
यात्रा में साथी हों हर पल असफलताएँ
मुझ पर गिरती जाएँ मेरी ही सीमाएँ
सुखद दृश्य तेरे हों
भरे नयन मेरे हों,
दुर्गम पथ तेरे हों
थके चरण मेरे हों ।
अपने साहस को भी मैं कंधों पर लादे
चलता जाऊँ जब तक तू यह तन पिघला दे
अमर सृजन तेरे हों
मृत्यु वरण मेरे हों,
दुर्गम पथ तेरे हों
थके चरण मेरे हों ।
तीन
अपनी दुर्बलता का
मुझको अभिमान रहे,
अपनी सीमाओं का
नित मुझको ध्यान रहे।
हर क्षण यह जान सकूँ क्या मुझको खोना है
कितना सुख पाना है, कितना दुख रोना है
अपने सुख-दुख की प्रभु
इतनी पहचान रहे ।
अपनी दुर्बलता का
मुझको अभिमान रहे ।
कुछ इतना बड़ा न हो, जो मुझसे खड़ा न हो
कंधों पर हो, जो हो, नीचे कुछ पड़ा न हो
अपने सपनों को प्रभु
बस इतना ध्यान रहे।
अपनी दुर्बलता का
मुझको अभिमान रहे |
अपनी सीमाओं का
नित मुझको ध्यान रहे।
चार
यही प्रार्थना है प्रभु तुमसे
जब हारा हूँ तब न आइए।
वज्र गिराओ जब-जब तुम
मैं खड़ा रहूँ यदि सीना ताने,
नर्क अग्नि में मुझे डाल दो
फिर भी जिऊँ स्वर्ग-सुख माने,
मेरे शौर्य और साहस को
करुणामय हों तो सराहिए,
चरणों पर गिरने से मिलता है
जो सुख, वह नहीं चाहिए
दुख की बहुत बड़ी आँखें हैं,
उनमें क्या जो नहीं समाया,
यह ब्रह्मांड बहुत छोटा है,
जिस पर तुम्हें गर्व हो आया,
एक अश्रु की आयु मुझे दे
कल्प चक्र यह लिए जाइए ।
11. “ अक्सर एक व्यथा “
अक्सर एक गन्ध
मेरे पास से गुज़र जाती है,
अक्सर एक नदी
मेरे सामने भर जाती है,
अक्सर एक नाव
आकर तट से टकराती है,
अक्सर एक लीक
दूर पार से बुलाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहीं पर बैठ जाता हूँ,
अक्सर एक प्रतिमा
धूल में बन जाती है ।
अक्सर चाँद जेब में
पड़ा हुआ मिलता है,
सूरज को गिलहरी
पेड़ पर बैठी खाती है,
अक्सर दुनिया
मटर का दाना हो जाती है,
एक हथेली पर
पूरी बस जाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहाँ से उठ जाता हूँ,
अक्सर रात चींटी-सी
रेंगती हुई आती है ।
अक्सर एक हँसी
ठंडी हवा-सी चलती है,
अक्सर एक दृष्टि
कनटोप-सा लगाती है,
अक्सर एक बात
पर्वत-सी खड़ी होती है,
अक्सर एक ख़ामोशी
मुझे कपड़े पहनाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहाँ से चल पड़ता हूँ,
अक्सर एक व्यथा
यात्रा बन जाती है ।
Sarveshwar Dayal Saxena Poems अंतिम शब्द।
तो, आज के लिए बस इतना ही। उपरोक्त सभी (Sarveshwar Dayal Saxena Poems In Hindi) / सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविताएँ हिंदी में पढ़ने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हमें खेद है कि इस पोस्ट में हमने सभी सर्वेश्वर दयाल सक्सेना / Sarveshwar Dayal Saxena के कविताएं नहीं लिखी।
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